
इस सोचने की प्रक्रिया में न सभ्यता के नियम, न सरकार के कानूनों की परवाह शामिल है, क्योंकि यह माना जाता है कि ये सारे नियम और कानून कमजोरों के लिए हैं, असली नियम सिर्फ ताकत है। इस धारणा की वजह से यह डर भी लोगों के अंदर समाया हुआ है कि आप आक्रामक नहीं हुए, तो सामने वाला आप पर हावी हो जाएगा, इसलिए आक्रामकता ही बचाव का एकमात्र तरीका है। इस तरह की सोच समाज में व्याप्त अजनबीयत से पैदा होती है, इसलिए बड़े शहरों में ऐसी घटनाएं ज्यादा होती हैं, जहां हर व्यक्ति दूसरे से अजनबी और इस वजह से संभावित दुश्मन मालूम होता है। जैसे-जैसे शहर बड़े हो रहे हैं, बाहर से लोग आ-आकर शहरों का यह चलन सीख रहे हैं।
शहरों के विस्तार के साथ ही लोगों में भय और असुरक्षा भी बढ़ती जा रही है। इसी भय और असुरक्षा की अभिव्यक्ति यह हिंसा और आक्रामकता है। हमारे आधुनिक समाज का विकास भी बहुत असमान तरीके से हुआ है। इससे समाज में ज्यादा अलग-अलग किस्म के समूह बन गए हैं, जिनके बीच संवाद या परिचय नहीं है। इन लोगों की दिनचर्या, रहन-सहन बिल्कुल अलग रहा होगा और उनके बीच संवाद या किसी साझा पहचान का कोई सूत्र नहीं रहा होगा। ऐसा अपरिचय किसी भी वक्त गुस्से और दुश्मनी का रूप ले सकता है और ऐसा ही हुआ। परंपरा से जो सुरक्षा हासिल होती है, वह हम गंवा रहे हैं और आधुनिक समाज के फायदे हमें ठीक से हासिल नहीं हुए हैं। यही आधारहीनता हमारे समाज के लोगों को एक-दूसरे का दुश्मन और कभी-कभी खून का प्यासा बना रही है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com