
विकासशील देशों ने तो सचमुच विकास की यात्रा बहुत बाद में शुरू की। इस नाते विकसित देशों को अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए फॉसिल ईंधन के इस्तेमाल में ज्यादा कमी करनी चाहिए और विकासशील देशों में स्वच्छ व पर्यावरण के लिहाज से कम नुकसानदेह टेक्नोलॉजी अपनाए जाने के लिए आर्थिक मदद करनी चाहिए। इस समझौते में दोनों ही मुद्दों को छुआ जरूर गया है, लेकिन कोई निश्चित लक्ष्य नहीं रखा गया है। इसके बावजूद इस समझौते को लेकर उत्साह का माहौल है क्योंकि जैसी भी हो, एक शुरुआत तो हुई है।
भारत को लंबे अरसे से पर्यावरण का खलनायक घोषित किया जा रहा था क्योंकि उसका रुख यह रहा है कि भारत जैसे देशों को अपनी जनता को गरीबी से निकालने के लिए ज्यादा छूट मिलनी चाहिए। अगर अभी से हम अपनी बढ़ती ऊर्जा जरूरतों पर सख्त कटौतियां स्वीकार कर लें, तो हमारी विकास की रफ्तार बहुत कम हो जाएगी और करोड़ों लोग गरीबी की रेखा से ऊपर उठने में नाकाम होंगे। दूसरी बात यह है कि विकसित देशों के पास बेहतर टेक्नोलॉजी और ज्ञान है, जिसकी वजह से ऊर्जा की खपत और उत्सर्जन में भारी कमी आ सकती है। यह टेक्नोलॉजी और ज्ञान विकासशील देशों को दिया जाना चाहिए।
विकसित देश न तो टेक्नोलॉजी और ज्ञान देने के लिए उत्सुक हैं, न पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए पैसा खर्च करना चाहते हैं।भारत की कुछ मांगें तो इस सम्मेलन में मान ली गईं। जैसे यह माना गया कि विकासशील देशों की जरूरत के लिहाज से उन्हें रियायत दी जानी चाहिए। यह भी माना गया कि विकसित देशों को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। भारत ने यह घोषणा की है कि सन २०३० तक वह अपनी जीडीपी और उत्सर्जन के अनुपात को सन २००५ के मुकाबले ३३ से ३५ प्रतिशत तक ले आएगा। भारत का यह भी कहना है कि सन २०३० तक वह अपनी ४० प्रतिशत ऊर्जा स्वच्छ स्रोतों से पैदा करने लगेगा। ये काफी महत्वाकांक्षी लक्ष्य हैं, जिन्हें प्राप्त करने के लिए बड़ी मेहनत की जरूरत है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com