भोपाल। मन समझाने के लिए भाजपाई कुछ भी कह लें परंतु भाजपा का अश्वमेघी घोड़ा झाबुआ में जाकर रुक गया है। पूरे 12 साल हो गए। भाजपा को एक भी चुनाव में हार का सामना नहीं करना पड़ा। उपचुनाव में तो कतई नहीं, लेकिन इस बार हुआ। पढ़िए क्या कारण रहा इसका:
1. शिवराज का निर्मला प्रेम
भले ही निर्मला भूरिया पेटलावद से लगातार 4 बार विधायक रहीं हों परंतु केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद उनके व्यवहार में एक अकड़ आ गई थी। वो जनता क्या कार्यकर्ताओं तक की बात नहीं सुनतीं थीं। स्थानीय नेताओं तक की शिकायत थी कि निर्मला का फोन नहीं उठता। अंचल में कहा जाता है कि निर्मला के वाहन का शीशा अब अगले चुनाव में ही नीचे उतरेगा। शिवराज को लगा कि निर्मला को टिकिट देंगे तो सहानुभूति के वोट मिलेंगे परंतु उल्टा हो गया।
2. पेटलावद ब्लास्ट
पेटालवद ब्लास्ट के बाद शिवराज ने बातों का मरहम लगाने की कोशिश तो बहुत की परंतु जनता बातों में नहीं आई। राजेन्द्र कास्वा की फरारी को जनता ने भाजपा का संरक्षण और पुलिस की लापरवाही माना। गुस्साई जनता नेगेटिव हो गई। जिस जनता ने निर्मला को विधायक बनाया था, उसी ने हराकर भेज दिया।
3. सटोरिए जिलाध्यक्ष को संरक्षण
यहां भाजपा का जिलाध्यक्ष सट्टा संचालित करता है। कुछ समय पहले एफआईआर भी दर्ज हुई परंतु संगठन की ओर से कोई कार्रवाई नहीं हुई। नंदकुमार सिंह चौहान का सटोरिए जिलाध्यक्ष को संरक्षण स्थानीय कार्यकर्ताओं में गुस्सा भर गया।
4. महंगाई ने मारा झटका
महंगाई को लेकर जनता काफी परेशान है। वो टैक्स और दूसरे गणित में पड़ना नहीं चाहती परंतु वो इतना जानती है कि बिजली का बिल जो पहले 2000 से ज्यादा नहीं आता था, अब 8000 से कम नहीं आता। डीजल से लेकर दालों तक सबकुछ महंगा हो गया है। निश्चित रूप से सरकार से नाराजगी थी।
5. मनरेगा की विफलता
जब से मोदी सरकार बनी है मनरेगा बंद सी हो गई है। थोड़ा बहुत जो काम हुआ, उसमें भी आदिवासियों को भुगतान समय पर नहीं मिला। एक एक पैसे के लिए चक्कर लगाने पड़े। गुस्साए आदिवासियों ने बदला ले लिया।
6. सरकारी कर्मचारी/अधिकारी
सरकारी कर्मचारी एवं अधिकारी भी सरकार से नाराज चल रहे हैं। पूरी सत्ता कुछ बड़े अफसरों के हाथ में है। उनकी सुनवाई नहीं हो रही है। सीएम हाउस के दरवाजे बंद हो गए हैं। पंचायत सचिव, आशा कार्यकर्ता, स्कूल के अध्यापक, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता से लेकर तहसीलदार स्तर तक के अधिकारियों में गुस्सा है। भाजपाई धमकी भरे अंदाज में बात करते हैं। इसलिए इस बार सबक सिखा दिया।
7. व्याापमं और दूसरे घोटाले
भाजपा को शहरी मतदाताओं से बड़ी उम्मीद थी। पिछले विधानसभा और लोकसभा के आंकड़े भाजपा को मुगालते में डाल रहे थे। उन्हें लगता था कि कांतिलाल भूरिया आदिवासी अंचल तक सिमट जाएगा और भाजपा शहर से जीत जाएगी, परंतु व्यापमं जैसे मामलों ने शहरी मतदाताओं का रुझान भी बदल दिया। शहरी क्षेत्रों में मतदान ही कम हुआ। जो हुआ वो भी आशा के अनुरूप नहीं था।
8. बाहरी नेताओं की धमचक
भाजपा ने यहां पूरी ताकत झोंक दी थी। मंत्री, विधायकों से लेकर भाजपा के तमाम नेता और संघ के बड़े कार्यकर्ता यहां डेरा जमा रहे थे। स्थानीय लोगों को बाहरी नेताओं की धमचक रास नहीं आई। माहौल नकारात्मक हो गया।
9. शिवराज बनाम भूरिया
निर्मला भूरिया की कमजोर स्थित भांपकर शिवराज सिंह चौहान ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। उन्होंने इस लड़ाई को शिवराज बनाम कांतिलाल भूरिया बना दिया। शिवराज सिंह चौहान का यह फैसला भी पार्टी के लिए गलत साबित हुआ। कांग्रेस ने विरोधी उम्मीदवार की इसी कमजोरी को मुद्दा बनाया। आचार संहिता लगने के पहले शिवराज की सभाओं में जुटी 'सरकारी भीड़' को जनसमर्थन मान लिया गया, जबकि आचार संहिता लगते ही हकीकत सामने आने लग गई।
10. कांग्रेस की एकजुटता
इस चुनाव में जहां भाजपा गुटों में बंटी दिखी। कांग्रेस की एकजुटता प्रमाणित हुई। कांतिलाल भूरिया अपने प्रचार में दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे दिग्गज नेताओं को लाने में सफल रहे। सिंधिया की सभाओं ने अलार्म भी बचा दिया था परंतु शिवराज समझ ही नहीं पाए।