राकेश दुबे@प्रतिदिन। कहने को मेरा भारत एक मजबूत लोकतंत्र हैं, जो मंगल तक अपना उपग्रह भेज चुका है, पर यहां के बच्चे अफ्रीका के निर्धनतम देशों की तुलना में कहीं ज्यादा कुपोषित हैं। लोकतंत्र की गंभीर विफलता का प्रतिनिधित्व करता भारत वैश्विक कुपोषण का केंद्र बन गया है।
दूसरे आंकड़े छोड़े सरकारी आंकड़ों को हिले तो देश के 39 प्रतिशत बच्चे कुपोषण से ग्रस्त हैं। इस मामले में भारत की हालत “बर्किना फासो, हैती, बांग्लादेश या फिर उत्तर कोरिया” जैसे देशों से भी बदतर है। तकरीबन २० करोड़ से अधिक की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में कुपोषण की तस्वीर तो भयावह है ही मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ भी लाल लाइन पर हैं । खुद सरकारी आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं कि इन राज्यों में पांच वर्ष से कम उम्र के ज्यादातर बच्चे कुपोषित हैं। २०१५ की वैश्विक पोषण रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की हालत अफ्रीका के तमाम देशों से खराब है।
कुपोषण से शारीरिक विकास पर तो असर पड़ता ही है, इसका सबसे ज्यादा असर बच्चे के मानसिक विकास पर पड़ता है। बचपन में कुपोषण बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य को वह नुकसान पहुंचाता है, जिसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती। कुपोषित बच्चे का दिमाग ठीक से विकसित नहीं हो पाता। यही वजह है कि बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों में कुपोषित बच्चों का औसत ज्यादा होता है।विशेषज्ञों का मानना है कि, 'कुपोषण पर हमारे खास ध्यान की वजह यह नहीं कि इससे बच्चों का शारीरिक विकास बाधित होता है, बल्कि यह है कि कुपोषण से बच्चों के बौद्धिक विकास पर असर पड़ता है।
इतना ही नहीं, बच्चे इससे मौत के कगार पर पहुंच गए हैं।' फिर, जब लाखों बच्चे बगैर किसी वजह के कुपोषण से ग्रसित हो रहे हों, तब उनकी जिंदगी बचाना पूरी दुनिया की प्राथमिकता होनी चाहिए। भारत सरकार और उसकी प्रदेश सरकारों को यह वहन से कर्जा जुटाने की बजाय अपनी ताकत कुपोषण दूर करने पर लगाना चाहिए नहीं तो हमारी हालत “हेती” से भी गई-बीती हो जाएगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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