क्या वर्तमान परिवेश में संयुक्त परिवार प्रासंगिक हैं?

सुशील शर्मा। भारतीय समाज हमेशा 'वसुधैव कुटुंबकम' की विचारधारा से संचालित रहा है एवं इसी भावना का मूर्त रूप संयुक्त परिवार है रामराज्य से लेकर कृष्ण के साम्राज्य तक संयुक्त परिवार की संकल्पना का पोषण हुआ है।

संयुक्त परिवार उस वट वृक्ष जैसा है जिसे स्वयं  नहीं मालूम की उसकी जड़ें कितनी और कहाँ तक फैली हैं संयुक्त परिवार में शिशु के लालन पालन से लेकर उसके समाजीकरण की प्रक्रिया का उद्भव होता है एवं उचित मार्गदर्शन एवं देखरेख में उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है।

देश के बदलते सामाजिक एवं आर्थिक आबादी संतुलन के साथ परिवारों के रहन सहन की दशाएं भी चुनौती पूर्ण हो गई हैं। 80 के दशक के बाद ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों का पलायन बहुत तेजी से हुआ है ,बच्चों की पढ़ाई एवं रोजगार की तलाश में संयुक्त परिवार टूट टूट कर शहरों की ओर स्थानापन्न हो गए। हमने दादी के नुख्से ,दादा की कहानियाँ ,ताऊ का सयानापन ,ताई की झिड़की ,काकी का दुलार ,काका की डांट और माता पिता का अपने बच्चों को दूर से बढ़ते हुए देखने का सुख खो दिया।

सामाजिक समरसताका प्रतिष्ठान
संयुक्त परिवार में पला बढ़ा व्यक्ति बहुमुखी प्रतिभा का धनी होता है क्योंकि वह नैतिक  एवं विविध संस्कारों व व्यक्तित्वों के बीच पनपता है उसका व्यवहार एकांगी नहीं होता है वह सयुंक्त परिवार के सभी सदस्यों के व्यवहारों का समिश्रण होता है। सभी से कैसे सामंजस्य बिठाना है।,कैसे अपने स्वार्थ के  इतर दूसरों का ख्याल रखना है ,सामाजिकता कैसे निभानी है ,प्रेम ,विश्वास एवं सहयोग  इन सारे  संस्कारों का विद्यालय सिर्फ संयुक्त परिवार ही है। अकेलेपन एवं बेरोजगारी से बचने में संयुक्त परिवार की अहम भूमिका है।

संयुक्त परिवार व्यक्ति में राष्ट्र निर्माण के संस्कार डालता है। वह सिखाता है कि राष्ट्र का निर्माण उस राष्ट्र  के लोगों ने जो प्राप्त किया है उस से नहीं वरन दूसरों के लिए जो छोड़ा  है, जो त्याग किया है उस से होता है। संयक्त परिवार हमें सामाजिक एवं नैतिक संस्कारों की जड़ों तक ले जाता है जहाँ से व्यक्ति में अनुशासन एवं स्वत्रन्त्रता की भावना का उदय होता है।

सामाजिक परम्पराओं एवं धार्मिक मान्यताओं को आचरण में उतारने का कार्य भी संयुक्त परिवार करता है। सामाजिक अवसरों की प्रथाएं, उत्सवों के मनाने के तरीके ,सामाजिक आचरणों की सीख ,प्राकृतिक नियमों का पालन ,स्वास्थ सम्बन्धी जानकारियां ,पर्यावरण संरक्षण आदि सभी व्यवहारिक ज्ञान हमें संयुक्त परिवार के बुजुर्गों से प्राप्त होता है। दादी सासों एवं सासों द्वारा अपनी बहुओं एवं बेटियों को बहुत सारी स्त्रीजन्य जीवनोपयोगी बातें झिड़क कर ,प्रेम से एवं अपने आचरण से संयुक्त परिवार में सिखाई जाती हैं। इस प्रकार पीढ़ियों में व्यवहारिक ज्ञान का हस्तांतरण स्वतः हो जाता है।

पर्यावरण संरक्षण की पाठशाला
भारतीय संस्कृति में प्रकृति के संरक्षण व संवर्धन का दायित्व समाज एवं परिवार से जुड़ा है। वैश्वीकरण के दौर में पश्चिमी  सभ्यता कब भारतीय जीवन में प्रवेश कर गई पता ही नहीं चला इस पश्चिमी सभ्यता के चलते भारतीय समाज पर्यावरण संरक्षण के प्रति उदासीन होता जा रहा है। संयुक्त परिवार की पर्यावरण संतुलन में अहम भूमिका है। बसाहट के मामले में देखे तो संयुक्त परिवार में 20 से 40 लोग एक ही परिसर में रहते है जबकि एकल परिवार में दो से चार व्यक्ति ही एक परिसर या आवास में रहते हैं जिस  कारण आवास की विकट  समस्या देश के समक्ष है। पानी एवं बिजली की बचत करना भी संयुक्त परिवार सिखाता है। औसतन एक व्यक्ति के लिए पानी का खर्च 60 से 70 लीटर होता है लेकि संयुक्त परिवार में ये खर्च घट कर 30 से 40 लीटर हो जाता है। बिजली की खपत भी संयुक्त परिवार में प्रति व्यक्ति करीब 30 से 40 यूनिट कम होती है। ईंधन की बचत के मामले में भी संयुक्त परिवार बहुत कारगर है जहाँ  एक बार चूल्हा या गैस जलने पर 2 से 4 व्यक्तियों  का ही भोजन बनता है संयुक्त परिवार में 10 से 20 व्यक्तियों का भोजन बन जाता है। स्वाथ्य सम्बन्धी परेशानियां भी दादी या दादाजी के आयुर्वेदिक व घरेलू नुख्सों से दूर हो जाती हैं जिस से दवाओं का खर्च बचता है।सभी सदस्य एक दूसरे के स्वास्थ्य के प्रति सजग रहते हैं ,शिशुओं की उचित देखभाल के कारण  अच्छा  शारीरिक विकास होता है। संयुक्त परिवार में पशु पाले  जाते हैं व उनको परिवार का सदस्य मान कर उनकी देखभाल की जाती है इस कारण  से व्यक्ति में जानवरों के प्रति संवेदना का भाव उत्पन्न होता है। 
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