राकेश दुबे@प्रतिदिन। नवाज शरीफ की अमेरिकी यात्रा के पहले और यात्रा के दौरान ऐसा ही माहौल रचने की कोशिश की गई थी। जैसे वे मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान हुए समझौते जैसा ही कुछ हासिल करेंगे। यह हास्यास्पद बात तो परमाणु समझौते को लेकर हुई। पहले से तय था कि शरीफ की अमेरिका यात्रा के दौरान किसी भी तरह का परमाणु समझौता नहीं होने वाला. बावजूद शरीफ ने मसले को ऐसे पेश किया जैसे परमाणु संधि करके ही लौटने वाले हों। मुलाकात के बाद उनकी पोल तब खुली जब अमेरिका ने साफ कर दिया कि वह परमाणु करार करने के संबंध में किसी भी तरह की वार्ता नहीं कर रहे।
हालांकि उसके इनकार को पूरा इनकार समझने की भूल हमें नहीं करनी चाहिए। हो सकता है कि अंदरखाने खिचड़ी पक रही हो. हालांकि दुनिया में जितने भी परमाणविक पदार्थों से जुड़े करार हुए हैं, उनकी राह इतनी आसान नहीं होती। भारत का ही अनुभव लें रास्ते में कई बैरियर सामने आए। बातचीत के कई दौर हुए, कई मसले ऐसे आए जिन्हें लेकर विवाद हुआ। विवाद सुलझाने की कोशिशें हुई। वार्ता हुई। आखिर में ऐसा समझौता हो पाया जिस पर दोनों देशों की मुहर लग पाई। इस तरह का समझौता इसलिए भी मुश्किल होता है कि वह उसी बिंदु पर तय होता है, जिसमें दोनों देशों को फायदा दिखे। जाहिर है पूरी प्रक्रिया में महीनों बल्कि सालों लग जाते हैं।
भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में यह राय है कि पाकिस्तान का रवैया अब तक परमाणु हथियारों और प्रसार के मामले में गैरजिम्मेदाराना रहा है। उसके परमाणु हथियार न केवल असुरक्षित हैं, बल्कि वह उनके इस्तेमाल की धमकी भी रह-रह कर देता रहता है।
इसके विपरीत भारत ने हमेशा स्पष्ट किया है कि हमारी परमाणु शक्ति शांति पर आधारित है, और इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल हम ऊर्जा उत्पादन के लिए करने वाले हैं। फिलहाल, पाक-अमेरिका परमाणु संबंध होने की संभावना निकट भविष्य में नहीं दिख रही। यह भी संभव है कि अमेरिका ने इस दिशा में भारत के विरोध को देखकर फिलहाल आगे बढ़ना स्थगित कर दिया हो और पाकिस्तान के साथ अंदरखाने इस संबध में बात हुई हो। यकीनन हमें अमेरिका को आगे भी इस मामले में अपनी आपत्तियां बताना जारी रखना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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