उपदेश अवस्थी@लावारिस शहर। मुझे मालूम है बहुत सारे लोग पोस्ट को पूरा पढ़े बिना ही अपनी प्रतिक्रियाएं दर्ज कराएंगे, लेकिन मैं केवल उनसे मुखातिब हूं जो विषय का अध्ययन करना जानते हैं।
मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं व्यक्तिगत रूप से जैन प्रभावना से मोहित हूं। मुनिश्री सौरभ सागर जी महाराज ने मुझे व्यक्तिगत रूप से ना केवल प्रभावित किया बल्कि एक प्रकार से सम्मोहित कर लिया था, परंतु इन दिनों जो जैन समाज दिखाई दे रहा है, ऐसा तो कभी नहीं था। मुनिश्री ने जो बताया था वो जैन समाज और मीडिया में जो दिखाई दे रहा है उस जैन समाज में भारत और पाकिस्तान जैसा अंतर दिखाई दे रहा है।
मैं खुद शाकाहारी हूं और कट्टर शाकाहारी हूं, इतना कि रेस्टोरेंट में शाकाहारी भोजन करने से भी कतराता हूं। लोटा, डोरी और छन्ना का महत्व ना केवल जानता हूं, बल्कि पालना की हर संभव प्रयास भी करता हूं, लेकिन पयूषण पर्व के अवसर पर मीटबैन के लिए जो कुछ जैन समाज की ओर से हो रहा है, मैं उसका समर्थन कतई नहीं कर सकता।
भारत का लगभग हर शहर विभिन्न प्रकार की धार्मिक आस्थाओं के नागरिकों को अपने भीतर समेटे हुए है। कुछ लोग शाकाहारी हैं तो कुछ मांसाहारी। हमारे पास शाकाहार के फायदों की लिस्ट है जो उनके पास मांस, मछली और अंडों के फायदे की। यह एक लोकतांत्रिक देश है और दोनों वर्गों को यह अधिकार है कि वे अपनी पसंद का प्रचार भी कर लें।
पर्यूषण पर्व के अवसर पर मांस बंद की मांग करना उचित है परंतु इसका विरोध होने पर 'आप राजनीति करें, हमें नीति ना सिखाएं' या 'हम कायर नहीं हैं, तलवार चलाना हमें भी आता है' जैसे बयान मुनियों के मुख से शोभा नहीं देते। कम से कम जितना मैं जैनपंथ को जानता हूं, उसके हिसाब से तो कतई शोभा नहीं देते। संयम, जैसे शब्द का तो अर्थ ही नहीं रह जाएगा यदि इस तरह से प्रतिक्रियाएं दी जाएंगी।
सवाल यह है कि यदि आप पर्यूषण पर्व के अवसर पर मीटबैन के लिए इतनी ताकत लगा रहे हो तो इसकी प्रतिक्रिया भी हो सकती है। मुसलमान भी इसी देश का नागरिक है। उसने यदि बकरीद पर ऐसी कोई मांग कर दी तो....?
आप शाकाहारी रहें, यह अच्छा है। आप शाकाहार का प्रचार करें, यह बहुत ही अच्छा है परंतु आप उनके मांस खाने के लोकतांत्रिक अधिकार का हनन कैसे कर सकते हैं। यदि आप उनके अधिकारों पर अतिक्रमण करेंगे तो उन्हे अपने आप यह अधिकार मिल जाएगा कि वो आपकी सब्जीमंडियां और दूध की दुकानें बंद करा दें ?