राकेश दुबे@प्रतिदिन। इस साल मॉनसून सीजन बीतने के दौर में है। अनुमान है कि इस साल मॉनसूनी वर्षा में 11 प्रतिशत की कमी रह सकती है। लेकिन ऐेसे आसार नहीं है कि देश में अकाल या सूखे की नौबत आ जाए या अनाज उत्पादन में ऐसी कमी आए जिससे भुखमरी के हालात पैदा हो जाएं। देश को एक कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था बताकर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि जून से सितम्बर के बीच चार महीने की अवधि में अगर मॉनसूनी वर्षा में जरा भी ऊंच-नीच हुई, तो हमारी आर्थिक तरक्की ठिठक जाएगी और अनाज के लिए हम विदेशों के मोहताज हो जाएंगे| ऐसी औचित्यहीन धारणा क्यों ?
सरकार भी इस बारे में पूरी तरह आश्वस्त है और योजनाकारों भीइससे सहमति व्यक्त कर रहे हैं| ऐसे में क्या यह माना जाए कि हमारी खेती का मॉनसून से रिश्ता टूट गया है? क्या अब मॉनसून के उतार-चढ़ाव हमारी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने की हैसियत में नहीं रहे और इसलिए मॉनसून से जुड़ी उन भविष्यवाणियों से भयभीत होने की जरूरत नहीं रही, जिन्हें लेकर काफी सनसनी रहती है?
मोटे तौर पर इन सारे सवालों का जवाब एक संक्षिप्त ‘हां’ में दिया जा सकता है| इस परिप्रेक्ष्य में ताज़ा उदाहरण वर्ष 2009 का है| उस समय मॉनसून बेहद खराब रहा था| खराब मॉनसून के आधार पर देश में सूखा घोषित किया गया था और इसका भय दिखाकर चीनी व अन्य अनाजों की कीमतों में बढ़ोत्तरी की गई थी. पर सचाई यह थी कि खरीफ की खराब फसल की भरपाई बेहतरीन रबी की पैदावार ने कर दी थी और कुल मिलाकर देश के फसल उत्पादन में एक फीसद की बढ़ोत्तरी भी दर्ज हुई थी| यही नहीं, देश की आर्थिक विकास दर पर खेतीबाड़ी में कमीबेशी का कोई असर नहीं पड़ा था. इससे साबित होता है कि अब देश एक ऐसे दौर में पहुंच गया है जहां मॉनसूनी बारिश से मौसम सुहावना जरूर हो सकता है, लेकिन उसमें फेरबदल का हमारी अर्थव्यवस्था पर बड़ा प्रभाव नहीं पड़ेगा|
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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