राकेश दुबे@प्रतिदिन। अजीब से खेल खेले जा रहे हैं, विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र के मन्दिरों में। सदन का न चलने देना और सदन को मनमाने ढंग से चलाने के साथ सदन में मनमाने आचरण कीर्तिमान बनते जा रहे हैं। चुनाव के पहले की धींगामुश्ती जब प्रजातंत्र के इन पवित्र सदनों में दिखाई देती है तो ऐसा लगता है क्या सामान्य शिष्टाचार भी महामहिम जन प्रतिनिधि भूल गये हैं।
नई पीढ़ी को जो यह सब याद दिलाते थे उन्हें काल बाहय, की संज्ञा देकर हाशिये में जाने को मजबूर कर दिया गया है। देश की राजधानी दिल्ली और प्रदेशों की राजधानियों के प्रजातंत्र के मन्दिरों में वर्षों तक स्थापित, चलते फिरते संसदीय ग्रन्थालय अपने बीते दिनों को याद कर सुबक रहे हैं।
किसी विषय पर संसद/सदन में बहस पहले कीर्तिमान हुआ करती थी। अब इस्तीफे की मांग और सदन न चलने देने के सारे उपक्रम कीर्तिमान स्थापित करने लगे है। मध्यप्रदेश में आज विश्व चर्चित व्यापम कांड के दौरान भी ऐसा ही कुछ हुआ। एक विधायक पर दूसरे विधायक को चप्पल दिखाने का आरोप है। देश के कुछ भागों में तो यह प्रक्रिया इससे आगे निकल चुकी है।
माइक तोड़ने फेंकने, कागज फाड़ने और इससे भी आगे बहुत कुछ घट चुका है। सदन को ठीक से चलाने की जवाबदारी यदि पीठासीन अधिकारी पर है, तो उसके सुचारू चलने का प्रमाण पत्र देने का काम राज्यपाल जैसी संस्था का है। जिसकी भूमिका कम से कम मध्यप्रदेश में नकरात्मक छबि की है।
मध्यप्रदेश में जो कुछ हुआ उसकी जद में व्यापम है और वह वो सब खोदने में लगा है जिसे सौजन्य की राजनीति वर्षों पूर्व दफना चुकी है। तू मेरे दाग न दिखा, मुझे तेरे दाग दिखते ही नहीं। आश्चर्य तो तब होता है, यह सब वे लोग करते है, जिनके नेता संसद की चौखट पर मत्था टेकते हैं या संवैधनिक परम्परा स्थापित करने वालों के नाम की दुहाई देते हैं। आरक्षण सब मांगते है, मैं भी मांगता हूँ, 10 सीटें हर सदन में संजीदा काम करने वालो के लिए, ताकि सदन की गरिमा कुछ बनी रहे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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