राकेश दुबे@प्रतिदिन। बिहार चुनाव को लगभग तीन महीने शेष हैं। भाजपा के माथे पर अब परेशानी की लकीरें दिखने लगी हैं। भाजपा की इस उम्मीद पर पानी फिर गया है कि लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एक नहीं हो पाएंगे, लिहाजा पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के वोट बंटेंगे और इसका जबर्दस्त फायदा उसे होगा।
वैसे भजपा अब अपने सहयोगी दलों के रवैए से भी क्षुब्ध है। जिस तरह राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा ने सीटों की मांगें पेश की हैं वह इस बात का भी संकेत है कि लोकसभा चुनाव की तरह अब मोदी लहर नहीं है।
भाजपा को गुमान था कि बिहार में उसके सहयोगी दलों की नैया मोदी लहर के सहारे ही पार लगी थी। अब वे ही दल कह रहे हैं किविधानसभा चुनाव में उनसे तालमेल के बगैर भाजपा जीत नहीं सकती।बिहार में विधानसभा की कुल दो सौ तैंतालीस सीटें हैं। उपेंद्र कुशवाहा की अगुआई वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने सड़सठ विधानसभा सीटों का दावा ठोंका है। जबकि लोकसभा में उसके केवल तीन सदस्य हैं। यह पार्टी कुशवाहा को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने की बात करती है । भाजपा को यह कैसे मंजूर कर सकती है?
भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सीपी ठाकुर ने जिस तरह मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के लिए अपना नाम आगे बढ़ाया है उसकी देखादेखी अन्य नाम भी उछाले जाएं तो हैरत की बात नहीं होगी। महादलित वोटों को रिझाने के लिए भाजपा ने जीतन राम मांझी की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया। पर मांझी चाहते हैं कि उन्हें करीब पचास सीटें दी जाएं। अलबत्ता भाजपा के लिए मुख्यमंत्री पद को लेकर न मांझी की तरफ से कोई अड़चन है न रामविलास पासवान की तरफ से। लेकिन इन सबके साथ सीटों के बंटवारे का मसला सुलझाना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। मोदी लहर बिहार में दिखती नहीं है , कोई गुप्त लहर हो तो उसका पता नहीं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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