“अन्नदाता” का दर्द न जाने कोय

राकेश दुबे@प्रतिदिन। और कांग्रेस की रैली फीकी रही| जब दिल्ली में रैली चल रही थी देश के विभिन्न भागों से किसानों की आत्महत्या के आंकड़े आ रहे थे|  सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों में से कोई भी  किसान को यह नहीं बता पाया कि भारत मे अन्नदाता कि दुर्दशा को कैसे रोका जाये | प्रतिपक्ष की तो छोड़िये मोदी सरकार भी कहाँ बता पाई कि वह   किसानों की आत्महत्याओं को रोकने के लिए क्या कदम उठाने जा रही है। 

ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री को यह पता नहीं है कि इस वर्ष के 180 दिनों में केवल महारष्ट्र में 601 किसानों ने आत्महत्या की है। पश्चिम बंगाल में तो ममता बनर्जी आत्महत्याओं की खबर को सिरे से नकार रही हैं, जबकि इस वर्ष केवल बर्द्धमान जिले में एक सौ छह किसान आत्महत्या कर चुके हैं और यह सिलसिला रुकता नजर नहीं आ रहा।

जब तमाम रास्ते किसानों के लिए बंद हो जाते हैं तभी वे यह बेहद दुखद कदम उठाते हैं। पर सरकारी मशीनरी किसानों की सुध लेने के बजाय आंकड़ों की हेरफेर से यह दिखाने की कोशिश करती है कि आत्महत्या करने वालों में ‘गैर किसान’ कितने हैं। हर खेती करने वाले के पास जमीन का पट्टा नहीं होता, प्राय: गांवों में खेतिहर-औरतों के नाम जमीन नहीं होती। इस तरह ऐसे लोग जो आत्महत्या करते हैं,उन्हें ‘किसानों की आत्महत्या’ के आंकड़ों में न गिन कर इस संख्या को सरकारी फाइलों में कम करके दिखाया जाता है। इस तरह सरकार सुप्रीम कोर्ट तक को गुमराह करने का प्रयास करती है। एक सरकारी प्रवक्ता ने हाल ही में सर्वोच्च अदालत में कहा कि २००९  से किसानों की आत्महत्याएं लगातार कम होती गई हैं।

हाल में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि देश के कृषि आधारित परिवारों में से बावन प्रतिशत कर्ज के बोझ तले दबे हैं। जन-धन योजना जैसी तमाम लंबी-चौड़ी बातों के बावजूद, आज स्थिति यह है कि छोटे किसानों को सस्ता ऋण देने की कोई सरकारी योजना कारगर सिद्ध नहीं हुई|  

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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