राकेश दुबे@प्रतिदिन। जब नर्मदा के किनारे कहीं भी जाना होता है, एक सवाल पूछा जाता है की नर्मदा भी क्या गंगा हो जाएगी ? मेरे दिमाग में दो त्तीव चित्र उभरते हैं| नर्मदा में खड़े होकर कसम खाते नेता, नियमो कायदों के प्रदूषण में उलझा प्रदुषण निवारण मंडल और नर्मदा के किनारे बसे उसके सुस्त बेटे|
अमरकंटक से लेकर खम्भात की खाड़ी तक 1400 किलोमीटर तक जीवन देने वाली नदी के लिए कुछ करने का कारण अब अदालत की लताड़ बनी है| जय माँ नर्मदे | अपनी 41 सहायक नदियों के साथ करोड़ों लोगों की प्यास बुझाने वाली और करीब एक लाख हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई करने वाली नर्मदा के साथ लोगों की धार्मिक आस्था भी जुड़ी है। इसके बावजूद नर्मदा में सीवर की गंदगी लंबे समय से बहाई जाती रही है। इस नदी में यों तो कई जगह औद्योगिक कचरा भी गिरता है, पर औद्योगिक प्रदूषण के बजाय गंदे नाले और सीवर नर्मदा के प्रदूषण के ज्यादा बड़े स्रोत रहे हैं। यूँ तो राज्य-शासन से लेकर नगर पालिका तक सभी की जवाबदेही बनती है।
कहा जा रहा है दस मई से नर्मदा के किनारे बसे शहरों और कस्बों का सर्वे होगा, जिसमें पता लगाया जाएगा कि कहां-कहां सीवर की गंदगी इस नदी में डाली जाती है, और फिर इसे बंद करने को कहा जाएगा। इस अभियान के पूरा होने की कोई समय-सीमा तय नहीं है, पर इसे तत्परता से किया जाना चाहिए। मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी कही जाने वाली इस नदी के साथ एक और बड़ी समस्या रही है। इसके किनारों पर धड़ल्ले से अतिक्रमण और अवैध निर्माण होते रहे हैं। इनमें बिल्डरों, डेवलपरों, स्थानीय दबंगों और राजनीतिकों से लेकर धार्मिक संगठन तक शामिल हैं। जबकि मास्टर प्लान में नदी के दोनों तटों पर तीन सौ मीटर तक हर तरह का निर्माण-कार्य प्रतिबंधित किया गया था। निहित स्वार्थों के दबाव में इसे लागू करने की इच्छाशक्ति सरकार और नगर निकाय नहीं दिखा पाए।
अब कुछ हो ही, जाये नर्मदा के बीच खड़ा होकर कसम खाने वाला उसका बेटा मुख्यमंत्री है और बेटी, दिल्ली में बैठ गंगा को प्रदुषण से मुक्त कराने का अभियान चला रही है| बेचारे हैं, हे! माँ नर्मदा इन्हें क्षमा करना|
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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