राकेश दुबे@प्रतिदिन। मुजफ्फरनगर जलता रहा और नीरो की तर्ज़ पर सरकारें गाती रही| जब कोई और न मिला तो सोशल मीडिया को जिम्मेदार ठहरा दिया| इस सरकारी फंतासी के कारण मुजफ्फनगर पर कुछ भी लिखना उस अर्थ के साथ अन्याय होता, जो शांति से निकलता है|
आज इस सारे उपद्रव की मुलायम व्याख्या के बाद यह प्रश्न खड़ा हो गया है कि “जातिगत संघर्ष” और “साम्प्रदायिक उपद्रव” में क्या अंतर है ? भारत में आज़ादी के बाद पैदा, लोगों का बंटवारा किसने और क्यों कर रखा है ? संविधान की कसम खाकर देश चलनेवाले सबको एक ही दर्जे का नागरिक मानने को तैयार क्यूँ नहीं है ? क्यूँ बनती है वर्ग विशेष के लिए विशेष योजनायें ?
इतिहास के पन्ने पलटें| अंग्रेजी राज्य के प्रारम्भ अर्थात 19 वीं शताब्दी में साम्प्रदायिक उपद्रव न के बराबर थे| 1930 में कानपुर में हुआ उपद्रव से पहले अंग्रेजों ने “बांटो और राज करो” की नीति अपनाई और आज चंद कुर्सी के भूखों ने इसे चुनाव जीतने का फार्मूला बना लिया| कोई मस्जिद के फतवे के सहारे चुनाव जीत रहा है, तो किसी को तुष्टिकरण से फतह हासिल होती है| किसी को कोई विशेषण देकर राजनीति का गणित हल किया जाता है| अब तो किसने टोपी पहनी और किसने टोपी नहीं पहनी जैसी ओछी और छोटी बातें राजनीति की सफलता और असफलता के पैमाने होने लगे हैं| यह सब अंग्रेजों के पद चिन्हों पर चल रहे हैं|
मुलायम सिंह आज जिसे जाति का संघर्ष नाम दे रहे हैं| दरअसल यह कट्टरता और उदारता का द्वंद है| यह संगठित और असंगठित समाज के समूहों का संघर्ष है| इस संघर्ष को कम करने के प्रयास हुए, परन्तु अत्यंत कम| राजनीति ज्यादा हुई और हो रही है, किसी एक ऐसे राजनेता का नाम याद नहीं आता, जिसने वोट बैंक की जगह इस द्वंद को समझकर कुछ ऐसा करने की कोशिश की हो| जिससे भारतीयता का भाव उभरे| टोपी और गमछे की सियासत की जगह समझने की कोशिश करें की दर्द कहाँ है और क्यों फूटता है ?