भोपाल। नईदिल्ली में नेशनल सैंपल सर्वे आर्गनाइजेशन ने अपनी रिपोर्ट सार्वजनिक की। इसमें बहुत सी बातें दर्ज हैं परंतु सबसे खास यह है कि शहर और गांव की तुलना में गांववाले ना केवल वेज बल्कि नॉनवेज पर भी ज्यादा खर्चा करते हैं। इतना ही नहीं कपड़ों पर उनका खर्चा शहर से ज्यादा है और मेडीकल पर भी।
इस रिपोर्ट ने वो सारे मिथक तोड़ दिए जो यह जताया करते थे कि गांव के लोग भोले—भाले, दयनीय हालत में सुखी रोटी खाकर गुजारा करने वाले और शहरी नागरिकों से कहीं ज्यादा तंदरुस्त होते हैं।
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि वेजीटेनियर भोजन में अनाज, दालें, दूध और सब्जियों पर गांववालों का खर्चा शहरी नागरिकों से कहीं ज्यादा है। इतना ही नहीं नॉनवेज में तेल, मांस और मछली खरीदकर खाने वालों की संख्या और खर्चा भी गांववालों ने ही किया। शहर के नागरिक तो बस टेस्ट लेते ही रह गए। कपड़े, जूते चप्पल और बिजली पर भी ग्रामीण भाईयों ने कहीं ज्यादा पैसा खर्चा किया।
मजेदार तो यह है कि खूब छककर खाने, पसंदीदा कपड़े और जूते पहनने और बेधड़क बिजली जलाने के बावजूद ग्रामीण इलाकों के लोगों का मेडीकल खर्चा भी शहरी नागरिकों से कहीं ज्यादा रहा। अलबत्ता एज्यूकेशन एवं मकान किराया के मामले में शहरी नागरिक ज्यादा खर्च करते पाए गए, सबसे ज्यादा पेट्रोल एवं डीजल भी शहरी इलाकों में ही खरीदा गया। मनोरंजन पर होने वाले खर्चों में दोनों वर्ग लगभग बराबर रहे। ग्रामीण नागरिक इस वर्ष .02 प्रतिशत से पीछे रह गए हैं, उम्मीद है अगले साल वो इस मामले में भी शहरों को पछाड़ देंगें।
लव्वोलुआब यह कि गावों में बसने वाला भारत, शहर में रहने वाले इंडिया से कहीं ज्यादा संपन्न है और उनकी खर्चा करने की ताकत बढ़ती ही जा रही है। अब वो गरीब ग्रामीण नहीं रहे बल्कि अपने खाने, पहनने पर दिल खोलकर खर्चा करते हैं और यदि बीमार हो जाएं तो सरकारी अस्पताल नहीं जाते, अच्छे प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराते हैं।