उत्तराखंड त्रासदी: पढ़िए एबीपी न्यूज़ के EE विजय विद्रोही के स्पाइसी कमेंट्स

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उत्तराखंड के केदारनाथ क्षेत्र में बचाव और राहत के काम में लगे वायुसेना के एक हेलीकॉप्टर के दुर्घटनाग्रस्त होने की खबर से तबाही की सियासत करने वालों को शर्मिदा होना चाहिए. अभी तक हमारे यहां धर्म या मज़हब को लेकर राजनीति होती रही है लेकिन अब धार्मिक धाम पर हुई त्रासदी को लेकर ही राजनीति हो रही है.

किस कांग्रेस सरकार ने कितने करोड़ की सहायता दी और उसके मुकाबले किस बीजेपी सरकार ने कितने करोड़ों की मदद भेजी, इसकी तुलनात्मक राजनीति हो रही है 
(गोया मुख्यमंत्री अपनी जेब से पैसा भेज रहे हों). 
हर राज्य का मुख्यमंत्री अपने राज्य के पीडितों को लेकर ज्यादा चिंतित नजर आता है.

इस अंदाज में बात हो रही है मानो राज्य विशेष का हेलीकॉप्टर केदारनाथ या गोचर या जंगल चेटटी या फाटा उतरेगा तो पायलट राज्य विशेष के नागरिकों को लेकर ही आवाज लगाएगा और फिर उनका परिचय पत्र  देख कर उन्हें सुरक्षित स्थान तक पहुंचाएगा.

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो सब को पीछे छोड़ दिया. पहले कहा कि पंद्रह हजार गुजरातियों को बाहर निकलवाया (जहां फंसे थे वहां से सेना ने सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया था न कि गुजरात सरकार के अधिकारियों ने), फिर कहा कि वो केदारनाथ धाम को दोबारा बनवाने में पूरी मदद देने को तैयार हैं.

सवाल उठता है कि अभी तो फंसे लोगों को निकालना है, जो लापता हैं उनकी तलाश करनी है, जो जा चुके हैं उनका अंतिम संस्कार करना है. अभी से यह कहने का मतलब क्या है कि मंदिर बनवा देगें. कांग्रेस के लोग सवाल उठा रहे हैं कि जो वादा करने और नारे लगाने के बावजूद राम मंदिर नहीं बनवा पाए वो केदारनाथ धाम क्या बनवाएंगे.

मोदी, मौसम खराब होने के कारण आधा अधूरा हवाई दौरा ही कर सके. गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कह दिया कि किसी को नीचे उतरने नहीं दिया जाएगा तो मोदी नीचे उतर नहीं पाए. आठ दिन गायब रहे राहुल गांधी तो बीजेपी ने शोर मचाया 
(पहले तो बीजेपी कहती है कि राहुल से देश को कोई उम्मीद नहीं हैं, फिर राहुल देश में नहीं रहते तो तो क्यों कहते हैं कि राहुल देश में क्यों नहीं है. बीजेपी पहले तय क्यों नहीं करती कि देश को राहुल गांधी से कोई उम्मीद बची है या नहीं).

खैर राहुल आए, दिल्ली में राहत सामग्री वाले ट्रक रवाना किए इस अंदाज में मानो 26 जनवरी के परेड के मौके पर झांकियों की सलामी ले रहे हों. फिर राहुल सड़क मार्ग से गोचर गए और वहां से चौपर से गुप्तकाशी और केदारनाथ. बीजेपी ने शोर मचाया तो शिंदे ने पहले कहा कि राहुल का चौपर कहीं उतरा नहीं है. कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने आगे जोड़ा कि चूंकि केदारनाथ गुप्तकाशी में बचाव का काम पूरा हो चुका है लिहाजा राहुल गांधी का चौपर चाहे तो वहां उतर सकता है. कहने वाले कहते हैं कि मोदी चले जाते तो क्या हो जाता और राहुल न जाते तो क्या हो जाता. काम तो वहां सेना के जवानों को ही करना था और कर भी रहे हैं.

मोदी बनाम राहुल क्यों

सवाल उठता है कि इसे मोदी बनाम राहुल क्यों बनाया जा रहा है. केदारनाथ धाम हो या गंगोत्री या यमुनोत्री या बद्रीनाथ यहां देश भर से लोग आते हैं. ज्यादातर सवर्ण जाति के होते हैं. इनमें से भी ज्यादातर बीजेपी के परंपरागत वोटर होते हैं. जो भी इस समय पहाड़ से नीचे उतर रहा है वो सेना की तारीफ कर रहा है और उत्तराखंड सरकार की आलोचना कर रहा है.

इस आलोचना का ही सियासी मुनाफा उठाने की तैयारी हो रही है. उत्तराखण्ड की आबादी एक करोड़ है लेकिन वहां हर साल ढाई करोड़ से ज्यादा पर्यटक आते हैं. इनमें से करीब 25 लाख चार धामों की यात्रा पर जाते हैं. इनमें उत्तर भारत से लेकर बंगाल और तमिलनाडू तक के धार्मिक सैलानी होते हैं. सदियों से यह यात्रा होती आई है और सदियों तक यह यात्रा होती रहेगी. ऐसे में अगर भयंकर त्रासदी में हजार से ज्यादा लोग मरते हैं तो यह आंकड़ा सालों सालों तक लोगों को चौंकाता रहेगा, रुलाता रहेगा.

बीजेपी जानती है कि मरने वालों की कहानियां बहुत दिनों तक सुनाते रहेंगे बचने वाले. यही वजह है कि इस बात को भी मुद्दा बनाया जा रहा है कि मोदी 24 चौपर भेजने वाले थे लेकिन उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार ने इनकार कर दिया. सरकार मान जाती तो कुछ और जानें बचाई जा सकती थीं.

यही वजह है कि मोदी ने समय से पहले ही केदारनाथ धाम को फिर से बनाने की जिम्मेदारी उठाने की घोषणा कर दी. कांग्रेस भी इसे समझ रही है. यही वजह है कि राहुल गांधी गुप्तकाशी के चक्कर काट रहे हैं, यही वजह है कि केंद्र सरकार ने घोषणा कर दी कि भारतीय पुरातत्व विभाग केदारनाथ धाम का फिर से पुराना रुप लौटायेगा, यही वजह है कि कांग्रेस ने मोतीलाल वोहरा और अंबिका सोनी जैसे नेताओं को देहरादून भेजा ताकि राहत और बचाव कामों में तेजी लाई जा सके.

कुल मिलाकर चुनावी साल में बीजेपी और कांग्रेस एक एक वोट को पकड़ रही हैं और मुकाबला आक्रामक होता जा रहा है. ऐसे में कौन देखता है कि त्रासदी की राजनीति, त्रासदी की कसक कम होने के बाद होनी चाहिए या त्रासदी के दौरान ही. खैर, सेना का काम तो बस खत्म होने को है. मीडिया भी पहाड़ से उतरने लगा है. इसके बाद वही जंगल माफिया, खान माफिया, होटल माफिया ही रह जाएगा. इस माफिया के सभी दलों के साथ रिश्ते हमेशा से ही सौहार्द्र पूर्ण रहते हैं. जाहिर तब नये सिरे से सियासत होगी.

एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर विजय ने यह विचार एबीपी न्यूज के ब्लॉग सेक्शन में लिखे एवं वहीं से लिए गए। 
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