राकेश दुबे@प्रतिदिन। उत्तराखंड से अब वह सच सामने आने लगा है, जो सरकार के उन सारे दावों और तर्कों को गलत साबित करता हैं कि वहां की सरकारों ने विकास किया है। हकीकत में निर्माण उद्योग से काली-सफेद कमाई के लालच ने वहां जिन निर्माण प्रक्रियाओं का इस्तेमाल किया वे गलत थीं।
इन्ही कारणों से देवभूमि पर्यटन स्थल से वीभत्स श्मशान में बदल गई। यह चेतावनी अब उन राज्यों के लिया है जो अपने पर्यटन स्थलों पर अंधाधुंध विकास को न्योता दे रहे हैं, जैसे मध्यप्रदेश में पचमढ़ी।
कुछ नमूने उत्तराखंड के सरकारी दस्तावेजों से छनकर सामने आये हैं। जैसे
सड़क - उत्तराखंड में एक किलोमीटर सडक बनाने में बीस से पच्चीस हजार घन मीटर मलबा निकाला गया और उसे सडक किनारे ही छोड़ दिया गया। यह मलबा शनै:-शनै जल स्रोतों तक पहुंचा और भराव का साधन बना। काली-सफेद कमाई के चक्कर ने इसी पर छोटे बड़े निर्माणों की अनुमति दी।
बांध - उत्तराखंड में 70 से अधिक बांध बनाये गये। एक करोड़ चालीस घन मीटर मलबा यहाँ से भी मिला और और किसी जलस्रोत के किनारे उसे भी ठिकाने लगाया गया और उस पर निर्माण।
बारूद -20,632 किलो ग्राम बारूद की खपत है, हर तीन माह में । डिटोनेटर तो लाखों में खपे हैं।
पहाड़ एक दिन में नहीं बनते है, पर एक दिन में जब उन्हें उडाया जाता है तो आसपास वह सब भी ही हिलता है जो पृथ्वी के भीतर या बाहर निर्मित हो रहा होता है। चेतावनी पर अमल करना सरकारों का स्वभाव नहीं होता है,क्यों ? सबको पता है।