अध्यापकों के वेतन के लिए अलग हेड क्यों ?

भोपाल। मध्यप्रदेश के एक अध्यापक ने पहचान छिपाने के आग्रह के साथ लिखा है कि अध्यापकों के वेतन के लिए अलग हेड क्यों बनाया जा रहा है। शून्य बजट पर सरकारी खजाने वाला हेड क्यों नहीं। यदि इस नए हेड में सरकार ने पैसे नहीं डाले या कम डाले तो...?

भोपालसमाचार.कॉम को भेजे ईमेल में संबंधित अध्यापक ने संविदा शिक्षक व अध्यापक संवर्ग की समस्याओं को बड़ी ही सरल भाषा में समझाने का प्रयास किया है। आप भी पढ़िए क्या कुछ लिखा है इसमें:-

जब से भोपाल समाचार.कॉम ने अध्यापकों की पीड़ा उठाने का बीड़ा अपने हाथ में लिया है, अध्यापक अब खुद ही मोर्चा सम्हालने लगे हैं। किसी नीतिगत मसले का विरोध हो या सरकार पर दबाव बनाने का काम, अध्यापकों की लेखनी चल पड़ती है। उनकी इस लेखनी को भोपालसमाचार.कॉम बाकायदा तवज्जो देता है। जिसका नतीजा है कि प्रदेश भर के अध्यापकों की कठिनाइयाँ उजागर हो रही हैं, और वे प्रदेश सरकार के हुक्मरानों तक पहुँच भी रही हैं। अब निराकरण करें या ना करें, उनकी सद्‌इच्छा।

पहले भी शिक्षाकर्मियों ने आन्दोलन किए हैं। मगर तब उनकी खोज खबर के लिए सिर्फ प्रिंट मीडिया ही उपलब्ध हुआ करता था। उनमें से कई, अध्यापकों को तोड़ने की खातिर कई प्रकार की अफवाहें छाप दिया करते थे। वे तो अब भी यही कर रहे हैं। मगर अब सरकार अध्यापक नेताओं को गुमराह कर अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारेगी क्योंकि इस इलेक्ट्रानिक मीडिया और फेसबुक के माध्यम से अध्यापक अपनी भड़ास निकाल ही लेंगे और सच्चाई जन -जन तक पहुँचा देंगे। जिसके कारण सरकार की छवि खराब होगी, सत्ता विरोधी वातावरण बनेगा और खामियाजा चुनाव में भुगतना होगा।

यह यथार्थ है कि सरकार सिर्फ वोटबैंक से डरती है, फिर ऐसे में अध्यापकों की बात न सुने जाने की स्थिति में अध्यापक सरकार का वोटबैंक उड़ाने का काम करें तो इसमें आश्चर्य कैसा? अध्यापकों को क्या मिला है और क्या मिल रहा है, उस पर सरकार भले ही अपनी पीठ थपथपाए परन्तु जो खुद ही भुगत रहा है और समाज के निचले तबके तक जिसका जुड़ाव है, वह अपने दर्द का बयां तो करेगा ही।

इस मीडिया के माध्यम से पता लग रहा है कि कमजोर सुविधाओं और अल्पवेतन का दंश झेल रहा यह संवर्ग वेतन वितरण से कितना त्रस्त है। अध्यापक भले ही स्थानीय निकाय के कर्मचारी हों , पर वे नियमित हैं। ऐसे में निर्माण और कन्टन्जेंसी की तरह वेतन के लिए बजट देने का क्या तुक है ? इसका तो यही अर्थ निकलता है कि या तो प्रदेश की शिक्षण व्यवस्था का बोझा ढोने वाले इस वर्ग की सरकार को कतई चिंता नहीं है या फिर सरकार आर्थिक रूप से तंग है । और ये दोनों ही बातें सरकार को कटघरे में खड़ा करती हैं।

अब खबर आ रही है कि अध्यापकों का बजट एक अलग हेड में प्रदेश स्तर से ही डाल दिया जाएगा। यहाँ भी धोखा ! एक अलग हेड क्यों ? सरकारी खजाने वाला हेड क्यों नहीं ? शून्य बजट पर वेतन क्यों नहीं ? अगर प्रदेश स्तर से ही कम बजट डाला गया तो पहले आओ, पहले पाओ जैसा हाल होगा। तब बदला क्या ? लापरवाह डीडीओ की लापरवाही तो अध्यापक ही भुगतेगा ।

जो सरकार प्रदेश के नौनिहालों की जिंदगी सँवारने वाले की जिंदगी नहीं सँवार सकी , उसका विकास का दावा कैसा ? सरकार के एक भी मन्त्री ने अध्यापकों की माँग को नाजायज नहीं कहा बल्कि उस पर सहानुभूति जताते हुए कहा कि आपकी माँगें जायज हैं। मगर हम आपकी माँगें नहीं मान सकते। क्यों ? ...क्योंकि बजट नहीं है। तब कैसा विकास ? जिस सरकार ने लगातार दस वर्षों तक शासन कर लिया हो , और अध्यापकों को समान काम का असमान वेतन दे रही हो, उस सरकार का विकास का दावा कैसा ?

सच्चाई तो यह है कि प्रदेश के मंत्री आला अफसरों की सोच से आगे नहीं जा सके हैं। आँख मूँदकर आला अफसरों की बात में हामी भर दी बस। यह बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो स्थानान्तरण जैसे नीतिगत मसले को अब तक लटकाया नहीं गया होता। उसमें तो बजट की कोई भूमिका नहीं है। ऐसे में क्या यह माना जाए कि सरकार की निर्णय लेने की क्षमता कुंठित हो गई है और वह मात्र आला अफसरों के हाथ की कठपुतली बन गई है ।

क्या कोई ऐसी बातें तब लिख सकता है ? जब तक कि वह स्वयं भुक्त भोगी न हो। सरकार के पास वक्त कम है, और अध्यापकों की पीड़ा अत्यधिक। सरकार को अध्यापकों की पीड़ा पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करते हुए त्वरित निर्णय लेना चाहिए। अन्यथा यह वर्ग और अधिक मुखरित होगा। झूठे दिलासे किस किसका मुँह बन्द करेंगे !

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