प्रतिदिन@राकेश दुबे। 2014 को लक्ष्य हर राजनीतिक दल अपना एजेंडा बनाने में लग गया है| कोई धर्म के नाम पर तो कोई धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इस चुनाव के परिणामों की कल्पना कर रहा है तो कुछ का निशाना जनता की बदहाली पर घडियाली आंसू है तो बहुत दिनों तक पिछड़ों के सहारे राजनीति करने वाले अब अगड़ों की राजनीति में आ गये हैं| सवाल यह है की ये सब सिर्फ चुनाव को लक्ष्य करके ही क्यों सोच रहे है देश के समग्र विकास से इन्हें कोई मतलब नहीं है|
वर्तमान में सारे राजनीतिक दल अप्रसांगिक हो गये हैं| इनके “थिंक टैंक” खाली हो गये हैं या उनमें भ्रष्टाचार का मलबा भर गया है| जनता हताश निराश और दिशाहीन होकर विकल्प की तलाश में है| विकल्प के जो प्रयोग दिखाई दे रहे हैं, वे संघर्ष को छोड़ अनशन के गाँधीवादी रास्ते से बदलाव चाहते हैं और वह भी जल्दी | यह संभव नहीं दिखाई देता है| मूल में अंग्रेजों द्वारा दी गई व्यवस्था और कानून है | जिन्हें बदलने के लिए कोई तैयार नहीं है और न किसी का इस ओर कोई कदम उठता दिखाई देता है|
अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल, स्वामी रामदेव और ऐसे ही कई अन्य प्रयोग अभी कोई नतीजा नहीं दे सकें हैं| समग्र परिवर्तन के सोच को लेकर 2019 के लिए कुछ व्यक्ति और समूह काम कर रहे हैं| यह साफ है कि देश में कानून और विशेष कर अंग्रेजों द्वारा बनाये गये कानूनों में बदलाव जरुरी है| देश के अधिसंख्य लोग इन कानूनों में बदलाव चाहते हैं| राजनीतिक दलों को अपने घोषणा पत्र में अभी से इस बारे में कोई स्पष्ट नीति होना चाहिए| धर्मनिरपेक्षता के नाम पर , अगड़े-पिछड़ों के नाम पर और जाति पर आधारित वोट से अलग हटकर सोंचे के तो देश का भला होगा| अपना भला तो ये खूब कर चुके हैं|