''रोजगार या रेजगारी''

सुबोध आचार्य/ रोजगार लापता है, कितने वर्षों से बेरोजगार युवक—युवतियां शहर—शहर ढूंढते फिर रहे हैं, जहां भी इसके मिलने की खबर मिलती है। हजारों लाखों की तादाद में भीड़ टूट पड़ती है। धक्के, लाठियां खाते हुए भीड़ का एक हिस्सा बनकर रह जाते हैं। जो नहीं ढूंढ़ पाते, फिर एक नई आशा के साथ अपने सोर्स का सहारा लेते हैं। ये पिछले कितने वर्षों से लापता है, कोई कहता है, इंदिराजी के समय से ही रोजगार गायब है।

कोई कहता है राजीव गांधी ने ढूंढ लिया था, लेकिन उनके ही साथियों ने इसे फिर से लापता करवा दिया जिसकी कोई रिपोर्ट आज तक नहीं लिखी गई। कुछ रोजगार युवक अब आस लगाकर बैठे हैं कि अनुकंपा के माध्यम से रोजगार मिल जाए तो ठीक है लेकिन यहां भी मेडिक्लेम और जीवन बीमा आड़े आ जाती है। सरकारें कर्मचारियों की सेवावृद्धि बढ़ा-बढ़ाकर रोजगार को और बेरोजगारों से दूर कर रही है। 

बेरोजगारी भत्ता कब बंद हुआ किसी को नहीं मालूम। कुछ तो कहते हैं कि बेरोजगारी भत्ता शुरू ही नहीं हुआ तो बंद कैसे होगा। सरकार ने सौ दिन कीर् यारंटी योजना प्रारंभ की लेकिन नकली अंगूठों ने वह हक भी छीन लिया। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं, घोषणाएं होती रही, लेकिन रोजगार लोक-लुभावन नारों से दूर रहा, क्योंकि यदि मैं आ गया तो मुद्रा-स्फीति और बढ़ जाएगी, महंगाई और बढ़ जाएगी, रोजगार के आने से परिवार और टूटेंगे, प्रांत और टूटेंगे और न जाने क्या-क्या होगा? रोजगार अपने-आप में इतना मजबूत हो गया है कि कोई सरकार उसको काबू में नहीं करना चाहती। 

रोजगार और रेजगारी दोनों एक एक सिक्के के दो पहलू हैं। रेजगारी उपलब्ध हो गई तो नकली नोटों का चलन कैसे हो पाएगा, जिन्होंने रेजगारी को अपने कब्जे में कर रखा है, वे कमीशन पर उसे देकर और इकट्ठा करते जा रहे हैं। आखिर, रेजगारी भी रोजगार के साथ लापता होने में कामयाब हो गई। आज भिखारी भी चवन्नी अठन्नी को भूलकर रूपया दो रूपया मांगने पर विवश हो गया है। इन दोनों को अगर ढूंढकर लाओ तो जानें!
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