शिक्षा : वैश्विक सूची में भारत नदारद ? | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। एशिया यूनिवर्सिटी रैंकिंग सूची २०१८ में भारत के लिए कुछ सुखद संकेत मिले हैं। ३५०  विश्वविद्यालयों की इस सूची में भारत के ४२ विश्वविद्यालयों को इस बार स्थान मिला है। रैंकिंग के १३ आधारों में से १२ पर भारतीय विश्वविद्यालयों ने अपनी स्थिति बेहतर बनाई है। विश्व स्तर पर विश्वविद्यालयों की रैंकिंग ऐसा मुद्दा है, जिसके भारत जैसे विकासशील देशों को होने वाले नफा-नुकसान पर बहुत तीखी बहस होती है। विश्व स्तर पर इन रैंकिंग को चलाने वाली तीनों एजेंसियां विश्व के श्रेष्ठतम ५०० से १००० विश्वविद्यालयों की रैंकिंग हर साल जारी करती हैं। अक्सर इन रैंकिंग में भारतीय विश्वविद्यालयों की अनुपस्थिति से हमारी उच्च शिक्षा के बारे में निराशा का दौर शुरू हो जाता है।

वैश्विक रैंकिंग में इस बार चीन की शिंहुआ यूनिवर्सिटी दूसरे नंबर पर और पीकिंग यूनिवर्सिटी तीसरे नंबर पर आई हैं। क्या कारण है कि चीन के विश्वविद्यालय, जो १९५० तक भारतीय विश्वविद्यालयों से पीछे थे, २१ वीं सदी में काफी आगे निकल गए? क्या भारतीय विश्वविद्यालयों में अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग के लिए जरूरी मानकों के प्रति जागरूकता का अभाव है? क्या हमारी उच्च शिक्षा सिर्फ कक्षा और परीक्षा तक सिमटकर रह गई है, और शोध व अनुसंधान में हम फिसड्डी बनते जा रहे हैं?

रैंकिंग में भारत और चीन की तुलनात्मक स्थिति का अध्ययन करें, तो वे कारण मालूम पड़ सकते हैं, जो चीन की तुलना में भारतीय विश्वविद्यालयों की खराब स्थिति के लिए उत्तरदायी ठहराए जा सकते हैं। यह रैंकिंग सूची भी १३ मानकों के आधार पर तैयार की जाती है, जो मोटे तौर पर शिक्षण, रिसर्च, रिसर्च की उत्पादकता, अंतरराष्ट्रीयकरण और यूनिवर्सिटी को उद्योगों से ज्ञान के हस्तांतरण से होने वाली आय से जुड़े हैं। भारतीय विश्वविद्यालयों के पिछड़ेपन का एक मुख्य कारण प्रकाशित शोध-पत्रों का अच्छा साइटेशन न होना है। यानी प्रकाशित शोध-पत्र को विश्व स्तर पर कितनी बार दूसरे शोधकार्यों में उद्धृत किया जाता है।

भारतीय विश्वविद्यालयों को यह सोचना चाहिए कि आखिरकार वे क्या कारण हैं कि शिक्षाविद्, शिक्षक और शोध-छात्र विश्वस्तरीय रिसर्च नहीं कर पा रहे हैं? क्या हमारे शिक्षक, शोध-छात्र, प्रयोगशालाएं और पुस्तकालय विश्वस्तरीय अनुसंधानों को संचालित करने के लिए सक्षम हैं? क्या विश्वस्तरीय शोध-कार्यों के लिए केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा विश्वविद्यालयों को समुचित वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं? क्या हमारे विद्यार्थियों और शिक्षकों के समुदायों में देश-विदेश का समुचित प्रतिनिधित्व रहता है या हम क्षेत्रीयतावाद के शिकार हैं? क्या हम विश्वस्तरीय सम्मेलनों और कार्यशालाओं में अपने शिक्षकों व शोध-छात्रों को समुचित संख्या में भेज पाते हैं? इन सवालों के ठोस हल ढूंढ़े बिना भारतीय विश्वविद्यालयों से विश्वस्तरीय प्रतिष्ठा या रैंकिंग पाने की अपेक्षा करना बेमानी होगा।

सही मायने में भारत को विश्वव्यापी ज्ञानाधारित अर्थव्यवस्था में अपनी हिस्सेदारी के लिए कुछ विश्वविद्यालयों को शोध-विश्वविद्यालय का दर्जा देना होगा। अमेरिका, जर्मनी व जापान की औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं की सफलता का राज विश्वविद्यालयों के संचालन का हुम्बोल्ट मॉडल है। हुम्बोल्ट मॉडल के विश्वविद्यालय नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद की बजाय गुणवत्ता के सिद्धांत का अक्षरश: पालन करते हैं। 

वर्ष २०१६ के केंद्रीय बजट में २० विश्व स्तरीय यूनिवर्सिटी स्थापित करने की घोषणा की गई थी। पिछले साल मानव संसाधन मंत्रालय की सिफारिश पर केंद्रीय मंत्रिमंडल से इसके नए रेग्यूलेशंस को स्वीकृति मिली है। इनका नाम अब वर्ल्ड क्लास यूनिवर्सिटी से बदलकर ‘इंस्टीट्यूट ऑफ ऐमीनेंस’ कर दिया गया है। आवेदनकर्ता विश्वविद्यालयों में कम से कम १५ हजार विद्यार्थी पढ़ रहे हों और शिक्षक व विद्यार्थी का अनुपात १:१५ हो। इन संस्थानों को यूजीसी के शिकंजे से मुक्त कर अधिकतम स्वायत्तता दी जाएगी। इसी प्रकार वर्ष २०१८ के केंद्रीय बजट में भी ‘प्रधानमंत्री रिसर्च फैलोज’ योजना घोषित की गई है। इन सबके परिणाम प्रतीक्षित हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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