कुपोषण की जंग और नगद भुगतान का प्रयोग

राकेश दुबे@प्रतिदिन। एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रत्येक तीसरा शिशु कुपोषित है और मातृत्व-काल की हरेक दूसरी महिला अनीमिया से ग्रसित है। और ऐसा तब है, जब हम कुपोषण से सभी मोर्चों पर लड़ रहे हैं- स्वास्थ्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के जरिये, स्वच्छता के मामले में स्वच्छ भारत मिशन के सहारे और पोषण के संदर्भ में समेकित बाल विकास सेवा की मुहिम से।इन् सारी परियोजनाओ का आकलन करती विश्व बैंक की रिपोर्ट हमारे देश की कलई खोल देती है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, एक औसत भारतीय अपनी आय क्षमता से लगभग 10  प्रतिशत कम अर्जित करता है, क्योंकि वह अपने शैशव काल में कुपोषित रह गया था। आधुनिक शोधों ने यह सिद्ध किया है कि जीवन के प्रारंभिक काल का कुपोषण व्यक्ति के मानसिक व शारीरिक विकास को अवरुद्ध करता है, जो जीवन-पर्यंत उसके सीखने की शक्ति, उसकी उत्पादकता और आय क्षमता को विपरीत रूप से प्रभावित करता है। ऐसे में श्रेष्ठ भारत की कल्पना के बारे सोच एक स्वप्न सरीखा है।

कहने को देश में कुपोषण से मुक्ति पाने के प्रयास विभिन्न योजनाओं के जरिये लक्षित परिवारों को खाद्यान्न या भोजन उपलब्ध कराने तक सीमित रहे हैं, चाहे वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली से उचित मूल्य पर अनाज उपलब्ध कराना हो अथवा विद्यालयों में मिड-डे मील की व्यवस्था हो, या फिर आंगनबाड़ी केंद्रों के जरिये गर्भवती महिलाओं व नवजात शिशुओं को राशन, पंजीरी अथवा पके हुए भोजन मुहैया कराने की व्यवस्था। यद्यपि हमारा खाद्यान्न एवं पोषण कार्यक्रम वैश्विक संदर्भ में सबसे व्यापक कार्यक्रमों में से एक है, मगर इसका परिणाम आशा के अनुरूप नहीं रहा है। चूंकि कुपोषण एक छिपी हुई समस्या हैै, इसलिए इसके प्रति राजनीतिक व्यवस्था प्राय: उदासीन रही है।

वैश्विक स्तर पर इन चुनौतियों का सामना करने के लिए सशर्त नकदी हस्तांतरण (सीसीटी) एक प्रभावी विकल्प के रूप में उभरा है। ब्राजील और मैक्सिको जैसे देशों में इन कार्यक्रमों की सफलता इस बात का प्रमाण है कि ऐसे कार्यक्रम गरीबी उन्मूलन व असमानता दूर करने के सशक्त साधन हैं। इन कार्यक्रमों के सघन मूल्याकंन से यह भी साबित हुआ है कि इससे व्यवहार में अपेक्षित बदलाव आया है, जो कुपोषण जैसी समस्याओं से मुक्ति के लिए अति आवश्यक है। हाल ही में बिहार के गया जिले में सर्शत नकदी हस्तांतरण की प्रभावशीलता का अध्ययन किया गया। बिहार बाल सहायता कार्यक्रम के माध्यम से यह काम हुआ। अध्ययन के चार विकास खंडों को चुना गया, जो सामाजिक व आर्थिक संकेतंकों के लिहाज से एक जैसे थे। दो विकास खंडों में अन्य लाभों के अलावा गर्भवती स्त्रियों को अपने पंजीकरण की तिथि से ३०  माह तक हरेक महीने२५०  रुपये कुछ शर्तों के साथ भुगतान किए गए। इसके अतिरिक्त अन्य सभी योजनाएं यथावत रखी गईं। इस नकद भुगतान के परिणामों को चार प्रमुख सवालों की कसौटी पर परखा- एक, क्या ये नकदी हस्तांतरण पोषण पर सकारात्मक असर डाल रहे हैं? दो, क्या नकदी का उपयोग निर्धारित प्रायोजन के लिए हो रहा है? तीन, क्या यह लाभ सही पात्र तक पहुंच रहा है? और चार, सेवाओं की उपलब्धता व लाभों का समग्र रूप से स्थिति बेहतर बनाने में मदद मिल रही है?

नए प्रयोग के परिणाम आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक दिखे। जिन विकास खंडों में नकद भुगतान किया गया, वहां के शिशुओं के कुपोषण में कमी की दर उन शिशुओं के मुकाबले पांच गुनी अधिक हुई, जहां सशर्त नकद राशि मुहैया नहीं कराई गई थी। इसी प्रकार, नकदी मुहैया कराए गए विकास खंडों में गर्भवती स्त्रियों में अनीमिया की दर में दो वर्षों के भीतर लगभग १४ प्रतिशत की कमी दर्ज की गई, जो कि राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है। स्पष्ट है, कुपोषण मुक्ति अभियान में सशर्त नकदी हस्तांतरण की अहम भूमिका हो सकती है, और राज्य सरकारों को इस विकल्प पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए, खासकर उन क्षेत्रों में, जहां की सार्वजनिक सेवाओं का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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