भारत में जहां जातिवाद के नाम पर हर कोई प्रिविलेज लेने की कोशिश कर रहा है। आरक्षण के कारण नौकरी मिलने के बाद दायित्वों में भी राहत की मांग करता है और जब मांग पूरी नहीं होती तो अधिकारियों पर प्रताड़ना का आरोप लगाते हैं। वही एक प्राथमिक शिक्षक ऐसा है जिसने जातिवाद तो किया लेकिन अपने फायदे के लिए नहीं बल्कि अपनी जाति के बच्चों के फायदे के लिए। उसने अपने लाभ के लिए पॉलिटिक्स नहीं की बल्कि अपनी जाति के बच्चों के लाभ के लिए परिवार छोड़ दिया। डॉक्टर अंबेडकर ने ऐसे ही लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी।
यह कहानी बालाघाट जिले के कोदापार सरकारी स्कूल में पदस्थ प्राथमिक शिक्षक श्री राकेश धुर्वे की है। प्राचीन काल में ऐसे लोगों को संत कहा जाता था। इसलिए हम अपने समाचार में "संत श्री राकेश धुर्वे" ही संबोधित करेंगे। संत श्री राकेश धुर्वे जैसे लोगों के कारण ही आरक्षण सफल होता है, समाज का दृश्य बदल जाता है। संत श्री राकेश धुर्वे सहरिया बैगा आदिवासी जनजाति परिवार के हैं। उनका जन्म लांजी तहसील की ग्राम पंचायत देवरबेली के दुर्गम ग्राम संदूका में हुआ था। बचपन और शिक्षा सब गांव में हुई।
दिनांक 9 दिसंबर 2010 को बिरसा विकासखंड के अंतर्गत सोनगुड्डा ग्राम पंचायत के ग्राम कोदापार स्थित शासकीय प्राथमिक शाला में प्राथमिक शिक्षक के पद पर नियुक्ति हुई। सरकारी नौकरी में पहली नियुक्ति के समय लोग कहीं पर भी ज्वाइन कर लेते हैं लेकिन उसके बाद अपने घर वापस जाने के लिए पॉलिटिक्स करते हैं। संत श्री राकेश धुर्वे ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उन्होंने देखा कि जिस विद्यालय में उनके पद स्थापना हुई है, उस विद्यालय में बैगा जनजाति के बच्चे पढ़ते हैं।
उन्होंने अपनी जाति के बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए वह फैसला लिया जो आज के जमाने में जातिवाद की पॉलिटिक्स करने वाला कोई बड़ा नेता भी नहीं लेता। संत श्री राकेश धुर्वे ने अपना परिवार छोड़ दिया और विद्यालय के पास ही छोटा सा घर बना लिया। अपनी पत्नी और बच्चों के साथ यहीं रहते हैं। अपनी जाति के बच्चों को पढ़ाते हैं और बच्चे भी लगातार आगे बढ़ रहे हैं। स्कूल के रिजल्ट में सुधार हो गया है। उन्होंने अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भर्ती नहीं कराया बल्कि उनके बच्चे भी सरकारी स्कूलों में ही पढ़ रहे हैं।
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