29 पुराने श्रम कानूनों को मिलाकर बनाए गए 4 लेबर कोड का असली उद्देश्य “Ease of Doing Business” नहीं बल्कि मज़दूरों को असुरक्षा, अस्थिरता और शोषण के नए युग में धकेलना है। “ये कोड मज़दूरों के दशकों के संघर्ष से कमाए गए अधिकारों पर सीधी चोट और ‘Hire & Fire’ नीति का कानूनीकरण हैं।” इन कोड्स के कारण मज़दूरों के दशकों के संघर्ष से मिले अधिकार कमजोर हो रहे हैं। मज़दूरों के लिए कोई सुरक्षा नहीं है। नये कोड पूरी तरह नियोक्ताओं के पक्ष में हैं और मज़दूरों की नौकरी की सुरक्षा को खत्म करते हैं। यूनियनों की सामूहिक सौदेबाज़ी की ताकत कम हो जाएगी। बेहतर मज़दूरी और सुविधाओं के लिए बातचीत करना बेहद कठिन होगा। हड़ताल करना लगभग असंभव क्योंकि हड़ताल के अधिकार पर भारी पाबंदियाँ लगाई गई हैं। अब शांतिपूर्ण हड़ताल पर भी दंडात्मक कार्रवाई हो सकती है।
स्थायी नौकरियों की जगह Fixed Term Contract
अब कंपनियाँ अल्पकालिक कार्यकाल के लिए मजदूर रख सकती हैं और अनुबंध पूरा होते ही उन्हें निकाल सकती हैं। इससे ठेका प्रथा को संस्थागत रूप से वैधता मिल गई है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में नौकरी का हिस्सा घटा ठेकाकरण के कारण विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार 12.9% से घटकर 12.1% रह गया है। ठेका मज़दूरों की संख्या तेजी से बढ़ी ठेका मज़दूरों का हिस्सा 15.5% से बढ़कर 27.9% हो गया है। इसका परिणाम: कम मजदूरी, कम सुविधाएँ नियोक्ता (मालिक) की कोई जवाबदेही नहीं। फिक्स्ड टर्म कर्मचारी को कम वेतन उन्हें स्थायी कर्मचारियों से कम वेतन मिलता है और रिट्रेंचमेंट पर कोई मुआवज़ा नहीं मिलता।अनुबंध पूरा होते ही बेरोज़गारी। फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट खत्म होने पर मजदूर स्वतः बेरोज़गार हो जाते हैं जिससे बेरोज़गारी बढ़ती है।
“हायर एंड फायर” को बढ़ावा: कंपनी को छंटनी/बंद करने के लिए सरकारी अनुमति की सीमा 100 से बढ़ाकर 300 कर दी गई है। 300 से कम कर्मचारियों वाले सभी संस्थान मनमाने ढंग से छंटनी कर सकते हैं। देश के 93% मज़दूर लेबर कोड से बाहर वर्तमान में भारत की श्रम शक्ति 610 मिलियन है। 93% (567 मिलियन) असंगठित क्षेत्र में 58% स्व-नियोजित अधिकांश मज़दूर लेबर कोड के दायरे से बाहर हैं, न नौकरी की सुरक्षा, न सामाजिक सुरक्षा। प्रिंसिपल एम्प्लॉयर की जवाबदेही खत्म अगर ठेकेदार सामाजिक सुरक्षा का भुगतान न करे, तो मुख्य नियोक्ता जिम्मेदार नहीं होगा।
गिग व घरेलू कामगारों की अनदेखी
गिग वर्कर्स और घरेलू कामगारों को नए कोड में कोई ठोस सुरक्षा नहीं मिली। पीएफ का दायरा घटा। केवल 20 या अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों में पीएफ अनिवार्य है। इससे करोड़ों छोटे–मोटे उद्यम बाहर हो जाते हैं। गिग व प्लेटफ़ॉर्म वर्कर्स बिल्कुल बाहर हैं।
पीएफ न जमा करने पर सख्त सज़ा नहीं: नियोक्ता/ठेकेदार PF न जमा करें तो भी हल्की कार्रवाई होती है। इसका खामियाज़ा कर्मचारियों को भुगतना पड़ेगा।
ग्रेच्युटी का अधिकार कमजोर: एक वर्ष सेवा पर ग्रेच्युटी मिलनी चाहिए, पर नए कोड में अगर ठेकेदार न दे तो मुख्य नियोक्ता जवाबदेह नहीं है।
कृषि क्षेत्र पूरी तरह बाहर: कुल कार्यबल के 50% से अधिक को रोजगार देने वाला कृषि क्षेत्र OSHWC कोड से बाहर है। छोटे होटल, पावरलूम, डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म, निर्माण आदि भी काफी हद तक बाहर हैं।
सुरक्षा समिति के लिए 250 कर्मचारियों की शर्त
जब देश में हर साल करीब 40,000 मौतें होती हैं, तब सुरक्षा समिति बनाने के लिए 250 कर्मचारियों की न्यूनतम सीमा एक मज़ाक है।
हड़ताल का अधिकार सीमित: अब किसी भी शांतिपूर्ण हड़ताल को भी अपराध की तरह दंडित किया जा सकता है।
विवाद व समाधान की परिभाषा बदली: नई परिभाषाएँ मज़दूरों के सामूहिक सौदेबाज़ी अधिकारों को कमजोर करती हैं।
फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट का वैधीकरण: फिक्स्ड टर्म कर्मचारियों को नोटिस का अधिकार नहीं, नोटिस के बदले वेतन नहीं, छंटनी मुआवज़ा नहीं।
जिला स्तर के लेबर कोर्ट समाप्त कर दिए गए हैं, जिससे न्याय और दूर हो गया है।
लेखक: डॉ.अमित सिंह, कार्यवाहक अध्यक्ष, आल डिपार्टमेंट आउटसोर्स अस्थायी कर्मचारी संयुक्त मोर्चा, मध्यप्रदेश।
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