पुलिस पूछताछ के दौरान वकील की मौजूदगी में क्या प्रॉब्लम है, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा: BHOPAL SAMACHAR

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को भारत सरकार से एक पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (PIL) पर जवाब मांगा है, जिसमें पुलिस पूछताछ के दौरान वकील की मौजूदगी का अधिकार देने की मांग की गई है। यह मामला शफी माथर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एंड अदर (Shaffi Mather vs. Union of India & Ors.) है।

आर्टिकल 20(3) के कार्यान्वयन की मांग

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बीआर गवई और जस्टिस के विनोद चंद्रन की बेंच ने इस याचिका पर नोटिस जारी किया। याचिका में कस्टोडियल इंटरोगेशन (custodial interrogation) और प्री-कस्टोडियल इंटरोगेशन (pre-custodial interrogation) दोनों के दौरान लीगल एडवाइजर की मौजूदगी को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने की मांग है।

याचिकाकर्ता की ओर से सीनियर एडवोकेट मेनका गुरुस्वामी ने तर्क दिया कि, पूछताछ के दौरान वकील को रोकने की प्रथा से जबरदस्ती और आत्म-आरोपण के खिलाफ संवैधानिक अधिकार (constitutional right against self-incrimination) का उल्लंघन हो रहा है। उन्होंने कहा कि यह कोई विशेष सुविधा नहीं, बल्कि मौजूदा संवैधानिक सुरक्षा का पालन है। गुरुस्वामी ने जोर दिया कि आरोपी या गवाह को कस्टोडियल जांच के लिए बुलाने पर वकील साथ ले जाने की सुविधा नहीं है, और वे केवल आर्टिकल 20(3) (Article 20(3)) के कार्यान्वयन की मांग कर रहे हैं।

याचिका, प्रैक्टिसिंग लॉयर्स (practising lawyers) द्वारा दाखिल की गई है, जिसमें नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन (NHRC) की रिपोर्टें संलग्न हैं, जो जबरन बयान और टॉर्चर (torture) के मामले दर्शाती हैं। 2019 में NHRC ने कई ऐसे केस देखे थे।

यह याचिका, पूछताछ के दौरान वकील की अनुमति को टुकड़ों में और विवेकाधीन (piecemeal and discretionary) तरीके से देने की प्रथा को चुनौती देती है, जो भारतीय संविधान के आर्टिकल 20(3), 21 और 22(1) का उल्लंघन करती है। कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (Code of Criminal Procedure) की धारा 41D और नई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita) की धारा 38 के तहत गिरफ्तारी के दौरान वकील से "मिलने" की अनुमति है, लेकिन पूरे समय नहीं। व्यवहार में वकील को नजर के दायरे में रखा जाता है, जिससे उनकी भूमिका सजावटी (ornamental) हो जाती है।

स्पेशल लॉज जैसे प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट (PMLA) और नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटैंसेस एक्ट (NDPS Act) में और कम सुरक्षा है, और इनके तहत एजेंसियों को दिए बयान सबूत के रूप में स्वीकार्य होते हैं, जिससे जबरदस्ती का खतरा बढ़ता है।

याचिका में संविधान सभा बहसों (Constituent Assembly Debates) का हवाला दिया गया है, जहां डॉ. बीआर अंबेडकर ने आर्टिकल 22 को विस्तारित करने वाले संशोधनों को स्वीकार किया था, जो जांच और इंक्वायरी सहित सभी चरणों में बचाव की गारंटी देता है।

अंतरराष्ट्रीय ज्यूरिस्प्रूडेंस (international jurisprudence) का भी जिक्र है, जैसे यूएस सुप्रीम कोर्ट का मिरांडा बनाम एरिजोना (Miranda v. Arizona) फैसला, जो पूछताछ से पहले चुप रहने और वकील के अधिकार की सूचना देना अनिवार्य करता है, और यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स का सल्दुज बनाम तुर्की (Salduz v. Turkey) फैसला, जो पहली पुलिस इंटरव्यू से वकील की अनुपस्थिति को फेयर ट्रायल राइट्स का उल्लंघन मानता है।

लॉ कमीशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट्स, जैसे 152वीं रिपोर्ट ऑन कस्टोडियल क्राइम्स (152nd Report on Custodial Crimes), का हवाला देकर कहा गया है कि पूछताछ में वकील जरूरी है ताकि टॉर्चर और दुर्व्यवहार रोका जा सके।

याचिका में पूछताछ के शुरुआती चरण से लीगल एडवाइजर तक पहुंच को गैर-विवेकाधीन संवैधानिक अधिकार घोषित करने की मांग है। साथ ही, वीडियो-रिकॉर्डेड इंटरोगेशंस (video-recorded interrogations), राइट्स की स्टेट्यूटरी नोटिस (statutory notices of rights), और अपवादों के लिए ज्यूडिशियल ओवरसाइट (judicial oversight) की गाइडलाइंस मांगी गई हैं।

याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व गुरुस्वामी ने शस्वती पारही, भूमिका यादव और अन्य एडवोकेट्स के साथ किया।
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