आज सोशल मीडिया पर बड़ी अनोखी और प्रासंगिक बहस शुरू हुई। सुबह सवेरे कुछ लोगों ने बताया कि "भूत पूजेंगे तो भूत बन जाएंगे" उन्होंने बताया कि श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 9 श्लोक 25 में लिखा है, पितरों को पूजने वाले लोगों को मृत्यु के बाद पितृलोक प्राप्त होता है। चलिए ज्योतिष विशेषज्ञ "आचार्य कमलांश" से पूछते हैं कि, क्या सचमुच पितृपक्ष में पितरों को पूजने से मृत्यु के बाद भूत बन जाते हैं?
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 9 श्लोक 25 एवं उसका भावार्थ एवं व्याख्या
यान्ति देवव्रता देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः…”
अर्थात जो पितरों की पूजा करते हैं, वे पितृलोक को प्राप्त होते हैं।
यह श्रीमद्भगवद्गीता का मात्र एक श्लोक है, इसकी व्याख्या से पहले श्रीमद्भगवद्गीता में इस विषय से संबंधित अन्य श्लोक का अध्ययन भी करना होगा और श्लोक क्रमांक 25 के पूर्व एवं पश्चात का अध्ययन भी करना होगा।
अध्याय क्रमांक 9 में भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन को राजविद्या-राजगुह्य योग के विषय में बता रहे हैं।
श्लोक क्रमांक 23 में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि जो लोग अन्य देवताओं की श्रद्धा व भक्ति सहित पूजा करते हैं वे भी वस्तुतः मेरी ही पूजा करते हैं।
श्लोक क्रमांक 24 में श्री कृष्ण कहते हैं कि, "क्योंकि मैं ही सब यज्ञों का भोक्ता और स्वामी हूँ। परंतु लोग मुझे तत्त्व से नहीं जानते, इसलिए वे (सीमित फल पाकर) पतित होते हैं"।
श्लोक क्रमांक 25 एवं उसका भावार्थ आप ऊपर पढ़ चुके हैं।
श्लोक क्रमांक 26 में श्री कृष्ण कहते हैं कि, "जो भक्त मुझे प्रेमपूर्वक पत्र (पत्ता), पुष्प (फूल), फल या जल अर्पित करता है, मैं उस प्रेमपूर्ण भेंट को स्वीकार करता हूँ"।
श्लोक क्रमांक 27 में भगवान श्री कृष्ण ने निष्कर्ष बताया कि, "हे अर्जुन! जो भी तुम करते हो, जो भी खाते हो, जो भी यज्ञ करते हो, जो भी दान करते हो और जो भी तप करते हो, उसे मेरे अर्पण रूप में करो"।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 9 श्लोक 25 की व्याख्या
इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने भक्ति, एकनिष्ठ पूजा और कर्म को भगवान को अर्पित करने का सिद्धांत दिया है। द्वापर युग में जब श्री कृष्ण अवतार हुआ तब धर्म की परिभाषा अलग थी। लोग वर्ष पर अपने पितरों की भगवान की तरह पूजा किया करते थे। उनके लिए प्रतिदिन भोग निकालते थे। आज भी भारत वर्ष में कुछ लोग अपने पूर्वजों को अथवा अपने गुरु के चित्र को भगवान के चित्र के साथ रखकर पूजा करते हैं। कुछ लोग आज भी हर रोज अपने पूर्वजों के लिए भोग बनाते हैं।
इसके अलावा द्वापर युग में कई लोग देवताओं की पूजा किया करते थे। धर्म की अनेक परिभाषाएं हुआ करती थी। भीष्म पितामह का धर्म अलग था, जबकि विदुर का धर्म अलग था। भगवान श्री हरि विष्णु ने, धर्म की स्थापना के लिए श्री कृष्ण अवतार लिया। उन्होंने बचपन में ही देवताओं के राजा इंद्र की पूजा का विरोध किया था। इसका तात्पर्य था कि उन्होंने सत्य को ही सर्वोच्च स्थापित किया है और सत्य को परिभाषित किया। उन्होंने किसी भी प्रकार से पितृपक्ष में श्राद्ध करने और तर्पण करने से इनकार नहीं किया।
Additional argument
गरुड़ पुराण में भगवान श्री हरि विष्णु ने ही मृत्यु के पश्चात आत्मा के मोक्ष की प्रक्रिया के विषय में विस्तार से बताया है। (यह और बात है किआपके यहां जो पाठ करने आता है वह गरुड़ पुराण का पाठ नहीं करता)।
भगवान श्री कृष्ण से पूर्व, श्री हरि विष्णु के अवतार भगवान श्री राम ने अपने पिता दशरथ के लिए विधिपूर्वक तर्पण और पिण्डदान किया था।
अयोध्याकाण्ड, सर्ग 105:
“जले च पिण्डान् विन्यस्य रामः सत्यपराक्रमः ।
पितुस्तस्य महात्मनः चकार विधिवत् तदा ॥”
भावार्थ: श्रीराम ने मंदाकिनी नदी में जल में पिण्ड रखकर अपने महान पिता का विधिपूर्वक तर्पण किया।
इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम ने सद्गति और पितृऋण की पूर्ति के लिए श्राद्ध की परंपरा को मान्यता दी। ✒ आचार्य कमलांश।