श्री कृष्ण के जन्म का दिव्य वर्णन, पढ़ेंगे तो धन्य हो जाएंगे, सहस्त्र प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे

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श्रीकृष्ण के जन्म के पूर्व समष्टी की शुद्धि में पंचतत्वों के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों का भी उल्लेख किया गया है। भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य के समय जगत् में किस प्रकार का वातावरण परब्रह्म ने निर्मित किया? श्रीकृष्ण के प्रादुर्भाव के पूर्व कारागृह के ताले अचानक खुल गए। लोहे की जंजीरों के बन्धनों का सहसा टूट जाना, पहरेदारों का गहरी निद्रा में सो जाने जैसी अनेक बातें हैं जो यह सिद्ध करती है कि किसी देव पुरुष का अवतरण हो रहा है। 

श्रीमद् भागवत् पुराण के दशम स्कन्ध में इस विषय पर लिखा गया है-
काल- अथ सर्वगुणोपेतरू कालरू परमशोभनरू।
य र्ह्येवा जन जन्मर्क्षं शान्तर्क्षग्रह तारकम्।।
(श्रीमद्भागवत् दशमस्कन्ध श्लोक क्र. 1)
भगवान कालातीत हैं। उसने भगवान के अवतरण के पूर्व रुद्र रूप धारण कर सबको निगलना प्रारंभ कर दिया था। पर जब उसे भगवान के अवतरण की सूचना प्राप्त हुई तो वह शान्त हो गया। उसे आनन्द होने लगा। उसने समस्त सद्गुणों को धारण कर लिया और चारों ओर सुहावना वातावरण निर्मित हो गया।

दिशा- दिशा शब्द का एक अर्थ श्आशा्य भी माना जाता है। श्रीकृष्ण के अवतरण के साथ ही सज्जनों की अभिलाषा पूर्ण होगी। आशा पूर्ण होने से सत्पुरुष प्रसन्न होंगे। श्रीमद्भागवत् में कहा गया है-
दिशरू प्रसेदुर्गमनं निर्मलोडुगणोदयम्।
मही मंगलभूयिष्ठपुर ग्राम व्रजाकरा।।2।।
(श्रीमद् भागवत् पुराण दशम् स्कन्ध।।2।।)

दसों दिशाओं के स्वामियों के नाम

प्राचीन शास्त्रों के अनुसार दिशाओं को देवी का स्वरूप स्वीकार किया गया है। प्रत्येक दिशा के एक एक स्वामी निर्धारित किए गए हैं, जैसे- 
  1. प्राची के इन्द्र, 
  2. प्रतीची के वरुण, 
  3. ईशान कोण के शिव, 
  4. वायव्य के चन्द्रमा, 
  5. उत्तर के कुबेर, 
  6. दक्षिण के यमराज हैं। 
  7. नैऋत्य कोण के स्वामी ग्रह राहु-केतु, 
  8. आग्नेय - अग्नि (अग्नि देवता)
  9. आकाश के स्वामी ब्रह्मदेव हैं। 
  10. पाताल के स्वामी शेषनाग हैं। 
श्रीकृष्ण के अवतार से दशों दिशाओं में प्रसन्नता छाई हुई है। कंस के राज्य में सभी पराधीन थे। कारागृह में बन्द थे। कृष्णावतार होने से राक्षसों का अन्त होगा और सभी स्वतन्त्र हो जाएंगे। भगवान् असुरों से सभी की रक्षा करेंगे।

पृथ्वी- श्रीदेवी और भूदेवी ये दोनों भगवान् की पत्नियाँ निरूपित की गई हैं। ये दोनों पृथ्वी की चल और अचल सम्पत्ति की स्वामिनियाँ हैं। श्रीरामचन्द्रजी ने पृथ्वी पुत्री सीताजी से विवाह किया, वामनावतार में अपने चरणकमल से पृथ्वी नाप कर दान दिया। पृथ्वी कृष्णावतार में उन सभी सुखों को भोगना चाहती है जो उसे अन्य अवतारों में प्राप्त नहीं हुए।

जल- नदियाँ कृष्णावतार होने के आनन्द में निर्मल हो गईं क्योंकि निर्मल हृदय वाले को भगवान प्राप्त होते हैं। रामावतार के समय में सेतु बन्ध बाँधा गया, अब कृष्णावतार में श्रीकृष्ण कालिन्दी के तट पर अपने मित्रों के साथ जल क्रीड़ा करेंगे। गोपियाँ भी इस खेल में भागीदारी करेंगी। श्रीमद् भागवद् में कहा है-
नद्यरू प्रसन्नसलिला हृदाजलरुहश्रियरू
(श्रीमद् भागवत् पुराण स्कन्ध 10)
नदियों का जल निर्मल हो गया था। रात्रि में सरोवर में कमल खिल रहे थे।

अग्रि- श्रीकृष्णावतार में अग्रि को श्रीकृष्ण ने मुँह में धारण किया। तृणावर्त, व्योमासुर, कालियादमन आदि से रक्षा की। यज्ञ भाग बन्द होने से अग्रि देव भूखे थे। अब वे भी प्रसन्न होकर प्रज्वलित होने लगे कि अब हवनकुंड सूने नहीं रहेंगे। कंस के अत्याचार से सूने अग्रिकुंड कृष्णावतार में प्रज्वलित हो उठे।

वायु- स्वामी के सामने सेवक अपने गुणों का प्रदर्शन करते हैं वैसे वायु भी करने लगा। वायु का कथन है कि जब श्रीकृष्ण के मुखारविन्द पर स्वेद बिन्दु परिश्रम के कारण आ जाएंगे तो मैं मन्द-मन्द सुगन्धित पवन बन कर उन स्वेद बिन्दुओं को सुखा कर उनकी सेवा का लाभ लूँगा। कृष्णजी के अवतरण के पूर्व ही वायु इस प्रकार का प्रयत्न करने लगा, जिससे वह श्रीकृष्ण सेवा कर सके-
ववौ वायुरू सुखस्पर्शरू पुण्यगन्धवरू शुचिरू।।४।।
(श्रीमद् भागवत् दशम् स्कन्ध)

आकाश- आकाश अनन्त है। वह विस्तृत भी है और विशाल भी है। सर्वदा आकाश की उपमा परम पिता परमेश्वर से की जाती है। स्वच्छ आकाश की नीलिमा की तुलना भगवान श्रीकृष्ण की अंग कान्ति से की जाती है। किसी भी उत्सव में जिस प्रकार चंदोवा को झालर तथा सितारों से सजाया जाता है उसी प्रकार नीले आकाश ने श्रीकृष्ण के अवतरण के अवसर पर तारों की झालर धारण कर रखी है।

नक्षत्र- श्रीकृष्णजी ने कारागृह में देवकी के गर्भ से जन्म लिया। बालक ने रोहिणी की संतुष्टि के लिए रोहिणी नक्षत्र में जन्म लेना उचित समझा। चन्द्रमा की सबसे प्यारी पत्नी रोहिणी थी। अत: इस नक्षत्र में जन्म लेना श्रीकृष्ण के लिए सार्थक था।

मन- मन अति चंचल होता है। योगी, मुमुक्षु और जिज्ञासु अपने-अपने विचारों के अनुसार मन को संचालित करते हैं। श्रीकृष्ण के अवतरण पर मन ने सोचा कि अब मैं इन्द्रियाँ, विषय और बाल बच्चों सहित बालक श्रीकृष्ण के साथ ब्रज भूमि में क्रीड़ाएँ करूँगा। यह सोच कर मन प्रसन्न हो गया। निर्मल मन में ही भगवान का वास होता है। छल, कपट, दंभ भगवान को सुहाते नहीं हैं। शुद्ध मन को सुखानुभूति कराने के लिए श्रीकृष्णजी अवतरित हो रहे हैं। सन्तों के शुद्धमन, स्वर्ग में देवता और उपवन में सुमन (पुष्प) सभी श्रीकृष्ण के अवतरण से आनन्दित हैं।

भाद्रपद मास- भाद्रपद मास कल्याण प्रदान करता है क्योंकि भद्र का अर्थ है- कल्याण देने वाला। कृष्ण पक्ष स्वयं श्रीकृष्ण से संबंधित है तथा अष्टमी तिथि पक्ष के मध्य में स्थित है। अज्ञान के घोर अन्धकार में ज्ञान के प्रतीक श्रीकृष्ण का प्राकट्य होता है। जिसका समय रात्रि के मध्य में है। अष्टमी तिथि पर चन्द्रोदय भी मध्य रात्रि में होता है। देवतागण, मुनि तथा ऋषिगण मथुरा की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। वे आनंदातिरेक में हैं और उन्हें श्रीकृष्ण के अवतरण के अवसर पर सुमन दृष्टि करना है।
मुमुचुर्मुनयो देवारू सुगनांसि मुदान्वितारू।
मन्दं मन्दं जलधरा जगर्जुरनुसागरम्।।
(श्रीमद् भागवत् पुराण स्कंध १० श्लोक ७ अध्याय ३)

हृद- कमल के पुष्प भी कुसुमित होकर प्रफुल्लित हृदय को श्रीकृष्ण को अर्पित कर रहे हैं। कालिया दमन, ग्वाल बाल और अक्रूर को अपने हृदय में ही श्रीकृष्ण ने स्वरूप दर्शन दिए। श्रीकृष्ण अपने सभी प्रिय भक्तों के हृदयस्थल में निवास कर उन्हें प्रसन्न करते हैं। उन्हें आशीर्वाद देकर उनके कष्टों का निवारण करते हैं।

उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट होता है जब जब पृथ्वी पर कोई भी सिद्ध पुरुष या ईश्वर का अवतरण होता है तब तब प्रकृति की सम्पदाएँ भी आनंदातिरेक में उल्लसित हो जाती हैं। युवा पीढ़ी के लिए यह एक सन्देश है कि हम भी प्रकृति के इस आनन्दोत्सव के भागीदार बनें। श्रीकृष्ण के प्राकट्योत्सव जन्माष्टमी पर नटवरनागर, माखन मिश्री के रसिक का स्मरण कर याद करें।

श्रीकृष्ण के प्राकट्य के पूर्व ही प्रकृति ने अपने श्रेष्ठतम स्वरूप तथा उल्लास को प्रकट करना प्रारंभ कर दिया था। भारतीय सनातन परम्परा के अनुसार प्रकृति के प्रत्येक स्वरूप की आराधना व संवर्द्धन करके वर्तमान में भी उसके सुन्दर स्वरूप का दर्शन किया जा सकता। जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हों, अर्जुन के प्रिय सखा हों, वहाँ श्रीवल्लभाचार्य रचित मधुराकष्टक का प्रत्येक शब्द सार्थक सिद्ध होता है-
श्मधुराधिपतेरखिलं मधुरं।

लेखक: डॉ. शारदा मेहता, उज्जैन (मध्य प्रदेश)

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