भारत का वैदिक राष्ट्रीय ध्वज कैसा है, किस वेद में राष्ट्रीय ध्वज का उल्लेख है - Vedic Knowledge

भारतीय वैदिक संस्कृति में राष्ट्रध्वज की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। राष्ट्रध्वज से रहित किसी भी राष्ट्र की कल्पना असंभव है। अथर्ववेद में हमें राष्ट्रध्वज का उल्लेख प्राप्त होता है। तत्कालीन राष्ट्रध्वज रक्तवर्ण का होता था। रक्तवर्ण पर श्वेत रंग का सूर्य चिन्ह अंकित होता था। यह हमारी संस्कृति का प्रतीक स्वरूप था। "आदित्य भवतो विभासि"। अथर्व12/70/

वैदिक काल में लाल रंग से क्या तात्पर्य था

लालरंग भाईचारे, प्रेम तथा स्नेह का प्रतीक है। हमारी संस्कृति लाल रंग को हिंसा का प्रतीक नहीं मानती। "सर्वे भद्राणि पश्यन्तु" तथा "उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्"। जैसे उच्च विचारों के पोषक हम भारतीय रक्त वर्ण को शुभ मानते हैं। लाल रंग वैदिक युगीन भारत के लिये सुख,समृद्धि, शुचिता और एक्य का प्रतीक है। वैदिक काल से ही सूर्य का तेजोमय स्वरूप प्रेरणास्पद रहा है। ऋग्वेद की प्रारंभिक ऋचाए सूर्योपासना से ओतप्रोत है। प्रकाश से तात्पर्य उजाला ही नहीं वरन् सत्य तथा ज्ञान की प्राप्ति भी है। अज्ञान रूपी अन्धकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर अग्रसर होना भी है।
असतो मा सद् गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मत्योर्मा अमृतं गमय।।

राष्ट्रध्वज पर सूर्य से क्या तात्पर्य है

सूर्य अर्थात प्रकाश का यह पुंज हमें भौतिक उन्नति करने तथा प्रजा पर अत्याचार करने की प्रेरणा नहीं देता है वरन् यह हमें बौद्धिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक ऊर्जा को प्राप्त करने के पथ पर अग्रसर करता है। हमारे मनीषियों ने सूर्य को अपने ध्वज पर स्थान देकर गौरवपूर्ण संस्कृति को विश्व धरोहर के रूप में सहेजने की प्रेरणा दी है। हम विश्व में जहाँ भी हों वहाँ हमारी यह विजय पताका लहराती रहे। इसका प्रकाश पुंज सभी का मार्गदर्शन करें, यहीं हमारी मनोकामना रही हैं।

वैदिक काल में भारत ने कभी किसी देश पर हमला क्यों नहीं किया

लाल ध्वज पर श्वेत सूर्य शांति और आध्यात्मिक शक्ति की ओर इंगित करता है। वैदिक साहित्य कहता है कि युद्ध करों पर केवल अत्याचारियों को परास्त करने के लिये और आक्रमण कारियों को रोकने के लिये अथर्ववेद में सैनिकों को आदेशित किया जाता है - "इवं संग्रामं संजित्य यथा लोकं वि तिष्ठध्वम्" अर्थात संग्राम जीत कर अपने अपने स्थान पर बैठ जाओ।

इस प्रकार वैदिक राष्ट्रीय ध्वज संकुचित विचारधारा का पोषक नहीं ह वैदिक साहित्य वैश्विक बंन्धुत्व की कल्पना करता है - "वसुधैव कुटुम्बकम्"। डॉ श्रीमती शारदा नरेन्द्र मेहता, उज्जैन 
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