लगता है ट्रैक्टर परेड इस बार होकर रहेगी - Pratidin

किसान और सरकार के बीच टूटती बातचीत और 26 जनवरी को प्रस्तावित ट्रैक्टर परेड से सभी का चिंतित होना स्वाभाविक है। यह देश के एक बड़े मतदाता वर्ग और सरकार के बीच सीधी रार है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से रोक लगवाने की कोशिश की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से ,तो सरकार में है। दिल्ली की सीमाओं से लगे राज्यों की सरकारें और प्रशासन ज्यादा चिंतित है।

इस स्थिति को भांपकर ही सरकार को अपनी राय में थोड़ा बदलाव करना पड़ा है। भाजपा ने सोशल मीडिया के जरिये इस आंदोलन को खालिस्तानियों से जोड़ने की हरसंभव कोशिश की, पर वो विफल रही। अब पंजाब और हरियाणा में बीजेपी विधायकों और नेताओं को सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेना मुश्किल होता जा रहा है।भाजपा का इन दोनों राज्यों में जो भी जन आधार है, वह लगातार छिनता जा रहा है। 1984 का डर दिखाकर भाजपा यहां राजनीति करती रही है। उसे जमीनी स्तर से लगातार सूचनाएं मिल रही हैं कि किसान आंदोलन के साथ जिस तरह का बर्ताव किया जा रहा है, उससे उसका रहा-सहा असर भी खत्म हो जाएगा। पंजाब में निचले स्तर पर कई बीजेपी नेताओं ने अपनी पार्टी से दूरी बनाते हुए आंदोलन को समर्थन देने की घोषणा भी कर दी है।

कृषि कानूनों के जरिये देश के कृषि क्षेत्र को उद्योगपतियों के हवाले किये जाने के अंदेशे से किसान दुखी है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में कुछ बड़ी कंपनियों की पैकेटबंद खाद्य सामग्रियों की बिक्री पिछले दो माह के दौरान घटी है। इन कंपनियों के सामानों के बहिष्कार का कोई सीधा आंदोलन तो नहीं चल रहा है, पर इन क्षेत्रों के लोगों ने चुपचाप ही सही, इन सामानों को यथासंभव नहीं खरीदने का बड़े ही करीने से अभियान चला रखा है। उन्होंने ही अपने व्यवसाय के हित में इस आंदोलन को किसी भी तरह फिलहाल स्थगित करवाने का भाजपा के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व से आग्रह किया है।

यह बात शुरू से ध्यान दिलाई जा रही थी कि पंजाब और हरियाणा में यह आग अगर जल्द ही ठंडी नहीं की गई, तो सुरक्षा के खयाल से कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इस आंदोलन के मसले को भी अमित शाह ही देख रहे हैं, क्योंकि वह सिर्फ केंद्रीय गृह मंत्री ही नहीं हैं, उन्हें इस सरकार में पीएम नरेंद्र मोदी के बाद सबसे ताकतवर माना जाता है।इस आंदोलन को लेकर सेना और सुरक्षा बलों में सरकार के लिए नकारात्मक भावना फैल रही है। इस तरह का असंतोष राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से अच्छा नहीं है।

संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) आंदोलन के समय अमित शाह ने जिन तरीकों का इस्तेमाल किया था, उन्हें भरोसा था कि उसी तरह की तिकड़मों के जरिये किसान आंदोलन से भी निबटने में कामयाबी मिल जाएगी। सीएए-एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) आंदोलन के समय सांप्रदायिक कार्ड खेलकर सरकार ने रास्ता निकाल लिया था। इसके साथ ही लगभग उसी समय कोविड के प्रकोप ने उस आंदोलन की वापसी करा दी थी। लेकिन इस आंदोलन में वह हथियार काम नहीं आया।

भाजपा ने पार्टी के कई नेताओं को इस काम में लगाया कि कुछ किसान नेताओं को तोड़ लिया जाए। इस आंदोलन में लगभग 500 संगठन शामिल हैं। इनमें से कई के भाजपा नेताओं से रिश्तेदारियां भी हैं, पर उनमें से भी कोई नहीं टूटा। आखिर, अपने परिवार-समाज और रोटी से अलगाव बनाकर कौन अपने को अप्रासंगिक बन जाने का खतरा उठाना चाहेगा? सरकार के रुख में कथित नरमी का कारण यही सब है।
देश और मध्यप्रदेश की बड़ी खबरें MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करेंया फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए
आप हमें ट्विटर और फ़ेसबुक पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!