अब तो आपका ही सहारा है, निष्पक्ष रहिये - Pratidin

अगर आप सोशल मीडिया पर वास्तव में और निष्पक्ष लिखते हैं, तो आपको हर घटना के विश्लेष्ण को बहुत बारीकी से समझना चाहिए। राजनीति अपने खेल खेल रही है और यह खेल बहुत पुराना है जिसे अंग्रेज खेलते रहे। “फूट डालो और राज करो।” आज देश के राजनीतिक दल खेल रहे है और सोशल मीडिया के स्वतंत्र चिन्तन को प्रभावित करने में हर हथकंडे अपना रहे है। मीडिया अन्य आयाम प्रिंट मीडिया और रेडियो, टेलीविजन को तो राजनीतिक भ्रष्ट कर ही चुके हैं। 

आपने भी देखा होगा वह दृश्य टीवी पर, जिसमें दिल्ली की सीमा पर आंदोलन कर रहा एक किसान एक सिपाही को पानी पिला रहा है। इसके पहले का दृश्य भी आपके मष्तिष्क में होगा  यह सिपाही भी उस कुमुक का हिस्सा था, जिन्होंने एक रात पहले किसान आंदोलनकारियों पर कड़कती सर्दी में ठंडे पानी की बौछार की थी। सरकारी प्रेस नोट में वर्णित “बौछार” शब्द से आपको अंदाजा नहीं हो सकता कि ठंडे पानी की मार का क्या होती है। जिससे यह पानी की बौछार की जाती है, अंग्रेजी में उसे ‘वाटर कैनन’ कहते हैं। वाटर कैनन अर्थात‍ पानी की तोप। हां, एक तरीके से यह पानी से तोप के गोलों जैसा काम लेना ही है। तोप का गोला शरीर को नष्ट कर देता है, पानी के गोलों से व्यक्ति के साहस को खत्म करने की कोशिश की जाती है। “किसानों द्वारा लाया गया पानी पीना अब प्रतिबंधित किया गया है। समाज का विभाजन ठीक वैसे ही हो रहा है, जैसे इन दिनों देश में :देश भक्त” और देश द्रोही”।

सब जानते है, पूरे देश के किसान प्रतिनिधि,  पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि के किसानो के बड़े जत्थों के साथ  दिल्ली में फरियाद लेकर आये हैं |ये किसान अपनी मांगों को लेकर आंदोलनरत हैं। मुद्दा सिर्फ विवादास्पद कृषि-कानून ही नहीं है, अब तो इस मुद्दे पर भी विचार होना जरूरी है कि जनता की मांगों को लेकर सरकार का रवैया कैसा होना चाहिए? विचार का विषय यह भी होना चाहिए कि जनतांत्रिक व्यवस्था में जब जनता कुछ मांगें लेकर अपनी सरकार के समक्ष आये तो सरकार को उसमें सिर्फ षड्यंत्र ही क्यों दिखता है? इस पर “लाइक” “ डिसलाइक” या “शेयर” नहीं देश की स्पष्ट राय चाहिये | यह राय सोशल मीडिया से एकत्र हो सकती है | इसलिए जरूरी है, इधर या उधर राजनीति के झांसे में  न आयें | जो लिखें, बिना किसी दबाव के स्पष्ट लिखें| इससे जनमत बनेगा जो देश को दिशा देगा।

मूल में किसानों के हितों की चिंता करने का दावा करने वाली सरकार ने कृषि से संबंधित तीन कानून पारित किये हैं और सरकार का दावा है कि ये कानून किसानों को शोषण से मुक्त करने वाले हैं।इसके विपरीत  किसानों को लग रहा है कि ये नये कानून बाज़ार की परंपरागत व्यवस्था को बदल कर यह कुछ पूंजीपतियों के हितों को पूरा करने की कोई चाल है। इसे स्पष्ट कौन करे ? ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि ये कानून बनाने से पहले देश की संसद में इस पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर विस्तृत चर्चा होती, पर ऐसा हुआ नहीं।अपने भारी भरकम बहुमत के बल पर सरकार ने अपनी सोच का कानून बना लिया। जब इस कानून का विरोध हुआ तो इसे राजनीतिक विरोधियों का षड्यंत्र निरूपित कर दिया गया।

 आज दिल्ली सरकार का रुख कुछ ऐसा दिख रहा जैसे दिल्ली पर कोई हमला हो रहा है। आंदोलनकारी किसानों को दिल्ली पहुंचने से रोकने के लिए हरियाणा और उत्तर प्रदेश के सिपहसालारों ने सारी ताकत लगा दी। पर इस सबके बावजूद हजारों की संख्या में किसान अपनी राजधानी की सीमा तक पहुंच ही गये। पर सीमा पर उन्हें इस तरह रोका गया जैसे दुश्मन फौजों को रोका जाता है। पानी की तोपें, अश्रु गैस के गोले, लाठियां तो काम में लिये ही गये, रास्तों में अवरोध के लिए सड़कें खोद दी गयीं ताकि किसान आगे न बढ़ पायें। अब स्थिति हाथ से निकलते देख सरकार ने बातचीत का प्रस्ताव रखा, पर इसमें भी शर्तें लगा दीं। आंदोलनकारियों को शर्तों वाली वार्ता मंजूर नहीं थी। वे मन की बात करने वाले अपने प्रधानमंत्री को अपने मन की बात बताना चाहते थे। होना तो यह चाहिए था कि देश की सरकार आगे बढ़कर देशवासियों की परेशानी समझने की कोशिश करती, पर उसे इसमें अपनी हेठी लग रही थी!

 

बहरहाल, बातचीत तो होगी, कोई नतीजा भी निकलेगा ही। सरकार ने जो व्यवहार किया है, और प्रतिपक्ष ने जो बर्ताव किया है वह बहुत कुछ सोचने के लिए बाध्य करता है। किसानों की मांगों के औचित्य की बात अपनी जगह है, पर देश की सरकार को देश के नागरिकों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इस सवाल पर भी चिंता होना जरूरी है। यह पहली बार नहीं है जब प्रदर्शनकारियों पर अश्रुगैस के गोले छोड़े गये हैं अथवा ठंडा पानी डाला गया है। पहले भी इस तरह की कार्रवाइयां होती रही हैं।अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन करना एक जनतांत्रिक अधिकार है और जनता के इस अधिकार की रक्षा करना जनतांत्रिक ढंग से चुनी गयी सरकार का कर्तव्य है। यह बात कभी भी  नहीं भुलायी जानी चाहिए कि प्रदर्शन के लिए विवश किए गये लोग भी देश के सम्मानित नागरिक हैं। असामाजिक तत्व नहीं |

एक समय मीडिया इस सबके बीच निष्पक्ष सेतु का काम करता था | मीडिया जगत में पिछले कुछ सालों से आये “मीडिया बाइंग” जैसे प्रयोग ने मीडिया की सम्मानजनक भूमिका को बदल दिया है | सरकार और प्रतिपक्ष दोनों अपनी सुविधा के अनुसार खरीदी के लिए बाज़ार में आ जाते हैं | स्वतंत्र चेतना की आस अब सोशल मीडिया के पहरुओं से हैं | उनकी निगहबानी और इमानदारी से भारत का सबसे बड़ा लोकतंत्र उस रूप में जा सकता है, जिसकी कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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