दुष्काल : उलझे सवाल और विकसित होती प्रतिरोधक क्षमता - Pratidin

चिकित्सा की दुनिया में एक मजाक चल पड़ा है- गर्भ धारण और हड्डी टूटने को छोड़कर कोरोना वायरस से कुछ भी हो सकता है। मजाक करते अस्पतालों को अवगत होना चाहिए कि विश्व के साथ ही अब हमारे सामने भी संक्रमण का दूसरा दौर है। कुछ देशों में तो इस चरण में पहले की तुलना में ज्यादा तेजी से नए मामले बढ़े, लेकिन राहत की बात यह है कि इस दौर में गंभीर मामलों में कमी आई है और इस कारण मौत का आंकड़ा भी पहले चक्र की तुलना में कहीं कम है। पूरी दुनिया में ऐसा ही देखा जा रहा है। इसकी स्वाभाविक वजह प्रतिरोधक क्षमता का विकसित होना है। भले सामुदायिक प्रतिरोधक क्षमता के सिद्धांत पर तमाम लोग अविश्वास करें लेकिन व्यावहारिक हकीकत इसके पक्ष में है, यानी तीसरी सीख यह है कि संक्रमण को लेकर लोगों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो रही है।

आज जब पूरी दुनिया इस संक्रमण के आगे बेबस है, वैज्ञानिक और उद्योग लगातार इस कोशिश में जुटे हैं कि इसका या तो इलाज खोजा जाए या फिर वैक्सीन। हड़बड़ी में कई प्रयोग किये गये और उपाय खोजे गए | मुनाफे की आस में सारा उद्योग मुनाफे की आस में दवा को बिना सही तरीके से जांचे-परखे, सिर्फ  खपाने में जुट गया। इस दिशा में पहला प्रयोग रहा हाइड्रॉक्सीक्लोक्वीन। उसके बाद डॉक्सीसाइक्लीन, रेमडेसिविर, प्लाज्माथेरेपी, आइवरमेक्टिन-जैसी तमाम दवाओं की बारी आई। लेकिन फायदा कुछ नहीं। इस तरह चौथी और सबसे सीख यह है कि बेहतर सीख यह है कि बेसब्री को छोड़कर उफान के थमने का इंतजार किया जाए।

सार-संक्षेप यह है कि क्या आज विज्ञान सवाल करने, परिकल्पना करने, प्रयोग करने और बिना किसी हित के सबूतों और पारदर्शी तरीके से परिणाम को साझा करते हुए किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का नाम होता जा रहा है? विज्ञान में कभी हड़बड़ी की कोई गुंजाइश नहीं होती। आह असलियत यह है कि संगठन से लेकर सरकारों तक ने आधी सच्चाई के आधार पर ही आगे बढ़ने को फैसला किया जो विकास के सिद्धांतों के प्रतिकूल है। पांचवीं और महत्वपूर्ण सीख यह है कि विज्ञान भरोसे की चीज है और इसमें भी आंख मूंदकर मान लेने की कोई जगह नहीं।

इस मामले भी यही सिद्धांत लागु होता है “सीखना एक अनवरत प्रक्रिया है, इसमें संदेह नहीं लेकिन कुछ सवालों के जवाब खोजने की कोशिश तो करनी ही चाहिए।“ सबसे पहला सवाल तो यही है कि आखिर कोरोना वायरस है क्या बला और इससे होता क्या है? विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निर्देशों के मुताबिक, अगर कोई व्यक्ति संक्रमित पाया जाता है और उसकी मौत हो जाती है तो चिकित्सा की दुनिया में एक मजाक चल पड़ा है- गर्भ धारण और हड्डी टूटने को छोड़कर कोरोना वायरस से कुछ भी हो सकता है। आज की स्थिति स्थिति में हर मौत को कोरोना वायरस से हुई मौत के तौर पर दर्ज किया भी जा रहा है - चाहे जान किसी भी कारण से गई हो। इस तरह तो दुनिया कभी यह नहीं   जान पाएंगी  कि वायरस के कारण हकीकत में कितने लोगों की मौत हुई।

 मौत के आंकड़े सही हों या गलत, यह एक बात जरूर उलझाने वाली है कि आखिर क्यों कुछ भौगोलिक क्षेत्रों में दूसरे की तुलना में प्रकोप ज्यादा रहा? उदाहरण के लिए, अगर हम प्रतिदस लाख व्यक्तियों पर मौत के आंकड़ों को देखें तो अमेरिकी देशों में यह सात सौ से अधिक मिलेगा तो पश्चिमी यूरोप में पांच से सात सौ के बीच और अपेक्षाकृत कम विकसित चिकित्सीय सुविधाओं के बाद भी एशिया में सौ से भी कम। भारत में भी महाराष्ट्र-जैसे राज्य में मौत का आंकड़ा बीमारू राज्यों से कहीं अधिक है। इस सवाल का तर्क संगत जवाब खोजना अभी बाकी है। हर बुरे वक्त की तरह यह दुष्काल भी गुजर जाएगा और तब देशों, सरकारों और विभिन्न समाजों को बैठकर देखना होगा कि कौन-से फैसले अच्छे रहे जिन्हें आगे अपनाया जाए और कौन-से फैसले वैसे रहे जिन्हें हाशिए पर डाल दिया जाए। तब यह  फैसला लेना होगा भी आखिर हम गलतियों के लिए भला किसे दोषी ठहराएं?
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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