न्यायाधीश : सहते हैं, कहते नहीं - Pratidin

देश के प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे की यह टिप्पणी कि “सबसे ज्यादा झूठी शिकायतें न्यायाधीशों के खिलाफ ही आती हैं और अगर व्यक्ति उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय में न्यायाधीश या प्रधान न्यायाधीश नियुक्त होने वाला है तो उसे निशाना बनाने का एक नया चलन देखने में आ रहा है।“ इस टिप्पणी के प्रकाश में मध्यप्रदेश के न्यायधीशो के साथ हुए या हो रहे बर्ताव पर विचार जरूरी है |

म.प्र. न्यायिक सेवा के१९८७ बैच के एक अधिकारी पर २०१८ से यौन उत्पीड़न के आरोपों की तलवार लटकी हुई है। यह भी तब जब शिकायतकर्ता महिला न्यायिक अधिकारी जांच समिति को सूचित कर चुकी हैं कि वह इस मामले में कोई साक्ष्य नहीं पेश करना चाहती। घटना कुछ ऐसी है -म.प्र. के इस जिला न्यायाधीश, जिनके नाम पर उच्च न्यायालय में पदोन्नति के लिये विचार हो रहा था, के खिलाफ अचानक ही अपनी सहयोगी महिला न्यायिक अधिकारी के कथित यौन उत्पीड़न के आरोपों में अनुशासनात्मक कार्रवाई की इजाजत दे दी गयी जबकि इस प्रकरण में पहले ही अंतिम रिपोर्ट आ चुकी थी। इस मामले में लैंगिक संवेदनशीलता आंतरिक शिकायत समिति ने पिछले साल अप्रैल में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि प्रतिवादी के खिलाफ शिकायतकर्ता (महिला न्यायिक अधिकारी) के आरोपों के समर्थन में एक भी साक्ष्य रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। इसके बावजूद समिति ने इस न्यायाधीश के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की थी। दिलचस्प तथ्य यह भी था कि यह न्यायाधीश इसी साल सेवानिवृत्त हो रहे हैं।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इस मामले में शीर्ष अदालत ने अनुशासनात्मक कार्रवाई पर रोक लगा दी और उच्च न्यायालय के सेक्रेटरी जनरल से जवाब तलब किया है। वैसे यह कोई पहली घटना नहीं है जब म.प्र. में किसी महिला न्यायिक अधिकारी ने अपने वरिष्ठ सहयोगी पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है। इससे पहले, एक और घटना २०१४  में सुर्खियों में आयी थी और उस मामले में तो विवाद का केन्द्र बने म.प्र. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस.के. गंगले को पद से हटाने के लिये राज्यसभा में विधिवत याचिका दायर की गयी थी। राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने न्यायाधीश जांच कानून के तहत उच्चस्तरीय जांच समिति भी गठित की थी। इस मामले में तो आरोप लगाने वाली महिला न्यायाधीश ने अपने पद से इस्तीफा तक दे दिया था।

इस उच्च स्तरीय जांच समिति को यौन उत्पीड़न के आरोप संदेह से परे सही नहीं मिले। लेकिन इन आरोपों की वजह से संबंधित न्यायाधीश को मानसिक वेदना से गुजरना पड़ा और अब न्यायिक सेवा से त्यागपत्र देने वाली यही महिला न्यायाधीश दुबारा नियुक्ति चाहती हैं। म.प्र. की इन दो घटनाओं के अलावा और भी ऐसे मामले हुए हैं, जिनमें न्यायाधीशों पर यौन उत्पीड़न से लेकर भ्रष्टाचार तथा भाई-भतीजावाद तक के आरोप लगते रहे हैं। इनमें से कुछ ही मामलों में जांच के दौरान आरोप सही मिले और ऐसे न्यायाधीशों को पद से हटाने की कार्रवाई भी हुई|
देश के प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी वास्तव में यह सोचने को मजबूर करती है कि क्या समाज में इस तरह की प्रवृत्ति पनप रही है? अगर ऐसा है तो निश्चित ही यह चिंताजनक स्थिति है। यह टिप्पणी समाज में पनप रही उस प्रवृत्ति की ओर इशारा करती है, जिसमें व्यक्ति यह सोचता है कि मेरा काम बने या नहीं, लेकिन दूसरा आगे नहीं निकलना चाहिए।

प्रधान न्यायाधीश बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने एक प्रकरण की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी भी की है कि किसी भी न्यायाधीश की पदोन्नति का समय आते ही अचानक उसके खिलाफ २० साल पुराने आरोपों को उछालने का चलन बढ़ रहा है। न्यायालय ने तो यहां तक कहा था कि न्यायाधीश चूंकि सार्वजनिक रूप से या फिर मीडिया के माध्यम से इन आरोपों का प्रतिवाद नहीं कर सकते, इसलिए उन्हें खामोशी के साथ इन्हें सहना होता है।

चूंकि देश के  प्रधान न्यायाधीश ने एक न्यायिक कार्यवाही के दौरान इस तरह की टिप्पणी की है, इसलिए इसकी गंभीरता पर विचार करके इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के उपाय खोजना जरूरी है ताकि न्यायपालिका और इसके सदस्यों की गरिमा और सम्मान की रक्षा की जा सके।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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