कोरोना काल में सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी / EDITORIAL by Rakesh Dubey

कोरोना के साथ फिजिकल डिस्टेन्सइंग का प्रचार सोशल डिस्टेन्सइंग के नाम से हुआ और गलत हुआ। आज उसके परिणाम कम दिख रहे हैं, आगे आने वाले समय में ये परिणाम और घातक होंगे। भारत में तो इसके लिए अभी से कोई उपाय खोजना होगा, बढते जनसंख्या घनत्व और भारत की समारोहिक प्रवृति तो एकाएक बदलने से रही। हर दिन समारोह और उसमे प्रत्यक्ष जुड़ने का शगल इस कोरोना काल भी सारे बंधन तोड़ता हर कभी दिखता है। कोई भी सरकार हो अनिश्चित काल तक तो प्रतिबन्ध नहीं लगा सकेगी। हम सबको अपने लिए कुछ करना होगा। कोरोना को लेकर लोगों के बर्ताव से आज हम बिल्कुल घबरा गये हैं कि हमारे समाज को अचानक ये क्या हो गया है। वैसे यह सबकुछ अचानक नहीं हुआ है। यह तो हमारी समाज की जड़ों में मौजूद है। सब मिलकर कोशिश करें तो यह दृश्य बदल सकता है।

अभी तो यह कहना ही बेहतर होगा कि वे सारी चीजें जो पूर्णतः अनपेक्षित थीं, अचानक से हमारे सामने आ गयी हैं। दरअसल ये चीजें हमारे समाज की जड़ों में बहुत गहराई से बैठ चुकी हैं। हमारे लिए स्वयं का जीवन इतना प्रिय है कि हम चाहते हुए इसमें सबको जोड़ ही नहीं सकते। ऐसा करनेवाले अपवाद स्वरूप हैं, और इन्हीं अपवादों से ये धरती चल रही है। उन्हीं में से एक, डाक्टर और अन्य चिकित्सा कर्मी हैं जिन्होंने कोरोना काल में अपनी परवाह किये बिना मुंह से सांस देकर लोगो को जीवनदान भी दिया है। ऐसे लोग बिरले हैं, और उनका प्रतिशत अत्यंत अल्प।

भारत ही नहीं विश्व में सिर्फ कोरोना को लेकर ही लोग ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, ऐसा नहीं है. संक्रामक बीमारियों को लेकर आम भारतीय जैसा व्यवहार विश्व के अन्य देशों में भी  ऐसा ही व्यवहार होता हैं। इन दिनों कोराना इतना ज्यादा प्रचारित व प्रसारित हो चुका है, इसलिए उससे जुड़ी बातें ज्यादा सामने आ रही हैं। कोराना मरीजों को लेकर लोगों के मन में जो डर है वह समय के साथ जायेगा, आनेवाले समय में जब लोग रूटीन में देखने लगेंगे कि इससे बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ रहा है, संक्रमण खत्म होने के बाद वह व्यक्ति एकदम ठीक है, उसके परिवार के सदस्यों पर भी इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है, तभी लोग सामान्य हो पायेंगे।

जैसे अब हम सभी जानने लगे हैं कि एड्स छूने आदि से नहीं फैलता है। इसके बाद भी यह पता चलने पर कि फलां को एड्स है, हम उससे दूरी बना लेते हैं। सिर्फ जागरूकता से कुछ नहीं बदलता धीरे–धीरे समय के साथ ये चीजें बदलती जाती हैं। सामन्य व्यवहार यह है कि एक बार मन में डर बैठ गया तो वह सहजता से नहीं निकलता है। उसमे समय लगता है।

अब जरूरी होता जा रहा है कि इस डर को भी दूर करने के लिए सब अपनी तरफ से लोगों में चेतना जागृत करने का भरपूर प्रयास करें। परिणाम सबको पता है कि सौ में से सिर्फ पांच या छह लोगों के भीतर ही चेतना जागृतहो सकेगी पर शुरुआत तो करना होगी, जो बहुत जरूरी भी है। कोरोना के डर को दूर करने के लिए लोगों की लगातार काउंसलिंग होते रहना भी बहुत जरूरी है। यह कहीं ना कहीं थोड़े लोगों पर ही सही, लेकिन प्रभाव जरूर डालेगी।

सही अर्थों में मानव इतना ज्यादा स्वार्थी हो चुका है कि किसी भी तरह के पाठ या सीख से उसके भीतर परिवर्तन नहीं आनेवाला, वह यह सब तभी करता  है जब उस पर विपदा आती है।

असल में मानव बहुत पाश्विक प्रवृत्ति की ओर बढ़ गया हैं, अमानवीय होता जा रहा है। यह बहुत चिंता वाली बात है। आदमी के सामने आदमी तड़प रहे होते हैं और आदमी वीडियो बनाते रहते हैं। इन स्थितयों से पार पाने के लिए हमें असंवेदनशीलता के ऊपर काम करने की जरूरत है| जो एक लंबी प्रक्रिया है। हमें यह मानकर चलना चाहिए कि हमारा जीवन केवल स्वयं तक सीमित नहीं है, असल में, हमारी सोचने की प्रक्रिया पूरी तरह परिवर्तित हो गयी है। इन दिनों कोरोना को लेकर जो छुआछूत हो रही है, उसे वैज्ञानिक तरीके से,मनोवैज्ञानिक तरीके से और सामाजिक तरीके से दूर करना हर मानव की जिम्मेदारी है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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