इन दिनों रोज बंद होती पत्र-पत्रिका बाहर किये जा रहे पत्रकार, आम चर्चा के विषय हैं। इससे जुड़ा सवाल है।क्या इंटरनेट के आगमन के बाद से चला आ रहा प्रिंट मीडिया का कष्टप्रद सफर, लॉक डाउन के दौरान अपने चरम की ओर चल पड़ा है। याद कीजिये, 1960 के दशक के आरंभ में जब नायलॉन और पॉलिएस्टर के कपड़ों का आगमन हुआ था और लोगों में पॉलिएस्टर की पैंट और नायलॉन की साडिय़ां खरीदने की होड़ मची थी तब ऐसा लगा था मानो पहनने के कपड़ों में कॉटन का इस्तेमाल अब समाप्त हो जाएगा, लेकिन अब लोग दोबारा कॉटन की ओर लौट रहे हैं। क्या मीडिया में वे “मिशनरी भाव वाले दिन” फिर लौटेंगे? अब यह आवश्यक हो गया है कि हम उन सामाजिक प्रक्रियाओं की पड़ताल करें जिनके माध्यम से प्रिंट मीडिया संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ा है। आधुनिकीकरण के साथ जो काल शुरू हुआ, दशकों तक फला-फूला और उसके बाद उसका पराभव होना शुरू हुआ और अब सबसे निचले पायदान पर है तो क्यों?
वैसे भारत के प्रिंट मीडिया के गौरवशाली इतिहास की नींव में स्वतंत्रता संग्राम था। उस समय पत्रकारिता जान की बाज़ी लगाकर की जाती थी। विश्व में प्रथम पत्रकारिता तीर्थ सप्रे संग्रहालय भोपाल में मौजूद द्सतावेज कहते है उस दौर के सम्पादकों ने सूखी रोटी और पानी के मेहनताने पर पत्रकारिता के झंडे गाड़े हैं। देश की पत्रकारिता ने आज़ादी के दौरान और उसके बाद कई छोटे-मोटे झटके सहे। प्रिंट मीडिया को ताज़ा बड़ा झटका सन २००० के दशक के आरंभ में लगा था जब इंटरनेट अपनी राह बना रहा था। उस वक्त इंटरनेट वेबसाइट वैवाहिक विज्ञापन, नौकरी, यात्रा और किराये के मकानों के विज्ञापन नि:शुल्क दे रही थीं। इससे अखबारों और पत्रिकाओं के वर्गीकृत विज्ञापन कम होने लगे जो उनकी आय का कम से कम आधा हिस्सा प्रदान कर रहे थे। चूंकि वेबसाइट ये विज्ञापन नि:शुल्क दिखा रही थीं इसलिए जल्दी ही इन्हें ग्राहक भी मिले और इसके साथ ही ऐसे वेंचर कैपिटल फंड सामने आए जो इन इंटरनेट मीडिया वेंचर को होने वाले नुकसान की भरपाई करने के लिए तैयार थे। यह सिलसिला आज तक जारी है।
भारत में अधिकांश नामचीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं का स्वामित्व और प्रबंधन उनके मालिकों के परिवार की तीसरी पीढ़ी के हाथ में है, परन्तु शायद ही कोई बिरला संस्थान हो जिसमें निरंतर 30 वर्ष लगातार काम करने वाला पत्रकार मौजूद हो। दुःख की बात तो यह है कि आज की मालिक पीढ़ी के पास ऐसी तकनीकी काबिलियत भी नहीं है कि वे कुछ नवाचार कर सकें।
ये वो सामाजिक शक्तियां हैं जो शून्य लागत वाली पूंजी तैयार करती हैं और जिसे दुनिया भर में लगाया जाता है? इसका मूल स्रोत अमेरिका है जहां अत्यधिक प्रभावशाली वित्तीय सेवा समुदाय लॉबीइंग करता है और इस दलील के साथ करीब शून्य ब्याज दर वाली व्यवस्था कायम करता है कि इस ब्याज दर पर कारोबारों को पूंजी सस्ती मिलती है और नए रोजगार तैयार होते हैं। यह बात सच्चाई से दूर है। छोटे कारोबारों के मालिकों को कभी बैंक से पूंजी नहीं मिलती। उन्हें पूंजी किसी पूंजीवादी से मिलती है जो बदले में उनके कारोबार में हिस्सेदारी लेता है ।
यही अवधारणा इंटरनेट को एकदम अलग दिशा में ले गई और इसने पत्रकारिता के उन योद्धों को वित्तीय समुदाय के हाथ का खिलौना बनने से कुछ बचा लिया जो वास्तव में पत्रकारिता करना चाहते थे हैं। इसमें कुछ खिलाडी ऐसे भी आगये जो मन चाहे मनचाहे ढंग से खेलने लगे। सप्रे संग्रहालय सबके लिए नियम मौजूद है, पत्रकार अपनी दुश्वारियों के चलते नहीं पढ़ते और मालिक जरूरत नहीं समझते।
अब मीडिया का मूलाधार प्रोग्रामिंग तकनीक है तो उन्हें बनाने वाले अपनी तथा अन्य वेबसाइटों पर कुछ उसके बारे में कुछ ललचाने वाली जानकारी डाल देते हैं। उनकी पूरी जानकारी आपको तभी मिलेगी जब आप सलाहकार के रूप में उनकी सेवा लेंगे या भुगतान करके उनके प्रशिक्षण कार्यक्रम में ऑनलाइन या ऑफलाइन शामिल होंगे। नए उद्यमी प्रतीक्षा में है जो इस उद्योग में नवाचार कौन लाएगा? अथवा कैसे आएगा ?
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।