दुष्काल : हमें क्या सिखाया और हम क्या सीखें ? / EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। दुष्काल ने बहुत से सबक दिए हैं। आज का “प्रतिदिन” समाज मीडिया और विज्ञान की समझ पर केन्द्रित है। सबक यह है कि मीडिया को वैज्ञानिकों के साथ संवाद के बेहतर तरीके जानने की कोशिश करनी चाहिए है। वैसे यह दोतरफा प्रक्रिया है। कुछ मीडिया समझें और कुछ वैज्ञानिक |वैज्ञानिकों को यह सीखना है कि एक आम आदमी उनके विषय को किस तरह समझ सकता है। वैज्ञानिकों को यह भी सीखना होगा कि जनसाधारण की समझ में आने वाली जबान में गलत धारणाओं को किस तरह खारिज क्या जा सकता है। उसी के साथ मीडिया को वैज्ञानिकों द्वारा किए गए वास्तविक दावों और ढोंगियों के दावों के बीच फर्क करना भी आना चाहिये अगर नहीं आता तो सीखना चाहिये।

इस दौर में ऐसा भी हुआ है |किसी तरह की चिकित्सकीय पृष्ठभूमि न रखने वाली प्रमुख हस्तियों ने सारी निदान पद्धतियों [ पैथियो] , शरीर पर तेज चमक वाली रोशनी और पराबैगनी किरणें डालने जैसे इलाज सुझाए, जनता ने उनकी शोहरत के कारण मान भी लिए, क्योंकि मीडिया प्रचार कर रहा था। इसी दौरान ऐसी इलाज-पद्धतियां भी देखने को मिली हैं जो पीएच स्तर बदल देने का दावा करती हैं। धार्मिक गुरुओं ने भी कुछ विधियों का परामर्श दे डाला। इन सबसे बचा जा सकता था।

कुछ ने हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन को संभावित कोविड-हत्यारा बताया है। इस दवा का क्लिनिकल परीक्षण किया गया, लेकिन इसे कोरोनावायरस के खिलाफ कारगर न पाए जाने के बाद नकार दिया गया इसके खतरनाक पश्चवर्ती प्रभाव भी सामने आये। फिर भी इस दवा की आपूर्ति को लेकर गंभीर किस्म का कूटनीतिक विवाद पैदा हो गया।

वायरस और तापमान को लेकर भी कहानी कही गई कि वायरस गर्म वातावरण में मर जाएगा लेकिन उन्होंने इस बात को नजरअंदाज किया है कि खाड़ी देशों और ऑस्ट्रेलिया के गर्म मौसम में भी यह खूब फैला है, और भारत में अब हर दिन अपने पैर पसर रहा है। चंद दिनों में ही वैक्सीन बन जाने के दावे भी हुए। सच बात यह है कि दुनिया भर में करीब दर्जन भर टीमें वैक्सीन तैयार करने की कोशिशों में लगी हुई हैं, लेकिन अब तक सबसे जल्द तैयार की गई वैक्सीन के बनने में भी चार साल से अधिक लग गए थे। ऐसे में अगर कोई वैक्सीन वाकई में वर्ष 2020 में आ जाती है तो यह चमत्कार ही होगा। यहां तक कि 2021 में भी वैक्सीन का आना किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं होगा।

पहली जरूरी बात तो यह है कि मीडिया को छद्म-विज्ञान पर आधारित खबरों को प्रमुखता से कवरेज देने की जरूरत नहीं है। 'संतुलित कवरेज' देने की भलमनशाहत से भी परहेज करना चाहिए, जब विषय जीवन-मृत्यु से जुडा हो ।

दूसरा, पहले से ही कम शोध संसाधनों को वैज्ञानिक आधार के बगैर स्वप्निल इलाज एवं थेरेपी के परीक्षण में नहीं लगाया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से भारत समेत कई देशों में कई मंत्रालय इस काम में लगे हुए हैं। होम्योपैथी आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा या एलोपैथी सभी दवाओं को क्लिनिक स्तर पर डॉक्टरी प्रयोग एवं परीक्षण के दौर से गुजर अनिवार्य हो। यह दमदार बात है कि महामारी के दौरान शोध के स्वर्णिम मानकों का पालन कर पाना संभव नहीं हो सकता है,परन्तु ऐसे परीक्षणों में हरसंभव स्तर तक दृढ़ता बरती जानी चाहिए। सरकारों को भी गलत सूचनाओं से निपटने में अहम भूमिका निभानी चाहिए। वरिष्ठ अफसरशाह और नेताओं को छद्मवैज्ञानिक बयानों से परहेज करना चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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