दुष्काल: अनुत्तरित सवाल, आप भी हल खोजिये | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। वैश्विक रूप से अब यह प्रमाणित हो गया है कि आपदाएं और युद्ध मनुष्य द्वारा निर्मित व्यवस्थाओं को तहस-नहस कर देते हैं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि मानव सभ्यता इस तरह की आपदाओं से संघर्ष करते हुए ही बनी है। विपत्तियों का सामना करने के लिए ही सुदृढ़ व्यवस्था का निर्माण किया जाता है पर आज जब हम विकासशील से विकसित की श्रेणी में जाते भारत में हजारों की संख्या में बच्चों सहित लौटते मजदूरों को देख रहे हैं, तो लगता कहीं कुछ और होना था, कहीं कुछ और करना था। भारत में यह सब सिर्फ महामारी के परिणामस्वरूप नहीं हुआ है, वरन यह हमारी सामाजिक-आर्थिक कुव्यवस्था का भी परिणाम है। आज इन मजदूरों की सामाजिक स्थिति क्या है? सामाजिक सुरक्षा के होते हुए इन्हें इन भीषण परिस्थितियों का सामना क्यों करना पड़ा? क्यों इन्हें छोटे-छोटे बच्चों के साथ पैदल सैकड़ों किलोमीटर चलने की नौबत आई?

सबसे बड़ा और मूलभूत सवाल है- नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा की गारंटी का क्या हुआ ? इन मजदूरों का महानगरों से पलायन, इस बात का उदाहरण है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी समाज के एक बड़े वर्ग की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित नहीं है। उसके लिए न घर है, न भोजन है, न पैसा है और न ही अपने परिवार की सुरक्षा के लिए न्यूनतम व्यवस्था ही है। यह तो हर दिन अनिश्चितता में जीने-मरने वाला भारत है।

इसे ही असंगठित क्षेत्र का मजदूर कहा जाता है| ये दिहाड़ी कमाता है, ठेके पर काम करता है, घरों में जाकर पोछा-बरतन करता है| किसी अनजान शहर की सड़कों, फुटपाथों पर ठेले-खोमचे लगाता है। पेट्रोल पम्पों पर,पेट्रोल नापता है। सुबह दूध,ब्रेड, अंडे और अख़बार आपके घर लाता है। जब पढ़ लिख जाता है तो अख़बार में कॉलम लिखता है। श्रमजीवी कहलाता है,पर है तो असंगठित है और कई सेवा जैसे बैंक,रेलवे आदि में संगठित तो कहलाता है ,पर समाज में उसका स्थान वो नहीं होता जो एक वार्ड पार्षद का होता है। सोचना होगा ऐसा क्यों ? 

आज लॉकडाउन की वजह से यातायात सेवाएं बंद हैं, तो सबसे बड़ा लेकिन, मजबूर वर्ग सड़कों पर पैदल चलता हुआ दिख रहा है। क्योंकि यह ट्रेड यूनियनों की संगठित सीमित राजनीतिक मांगों से बाहर रहनेवाला वर्ग है। सच में तो यही अर्थव्यवस्था का बहुत मजबूत स्तंभ है। सिर्फ यही वर्ग निर्माण कार्य में लगा रहता है। आज महामारी की वजह से यही श्रमिक वर्ग लगभग दुनिया के हर कोने में फंसा हुआ है।

समाजशास्त्रीय विचार से यह पूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम है। जो बहुत बड़े पैमाने पर सस्ते श्रमिकों को पैदा करती है और उन्हें किसी एक ही केंद्र में धकेल देती है। ये केंद्र शहरों और महानगरों में होता है, जहां दूर-दराज से मानव आजीविका की तलाश में पहुंचता है। जहाँ पूंजीवाद सामाजिक सुरक्षा को राज्य के हाथों से छीनकर बाजार को सौंप देता है। यही निजीकरण की मूल कहानी है।

कहने को भारत सरकार ने राष्ट्रीय आपदा में श्रमिकों के वेतन में कटौती न करने और छंटनी न करने का आदेश दिया है, परन्तु बहुत बड़ी आबादी इस दायरे से बाहर है। मुफ्त में राशन देने की सामाजिक और सरकारी व्यवस्था हुई है, यह स्वागत योग्य है, परन्तु क्या यह समाधान है? यह दुष्काल समाज की आधारभूत संरचना से जुड़ा हुआ सवाल है, जो किसी भी विपत्ति के समय फिर से उपस्थित हो सकता है। सच तो यह है कि राजनीतिक अवसरवादिता ने इस दिशा में कभी गंभीरता से चिंतन नहीं किया हैऔर भविष्य के चिन्तन की उसे फुर्सत नहीं है।
वास्तव में आज हम जहां हैं, जिस रूप में हैं, वहीं से अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभा सकते हैं। सोचिये, जिससे भविष्य में कोई भी आपदा हमारी मनुष्यता को तहस-नहस न कर सके। इस दुष्काल ने बता दिया है कि अपने को विकसित कहने वाले राष्ट्र भी अभी बहुत पीछे हैं, बहुत पीछे।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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