दुष्काल : कुछ कीजिये, इससे पहले की अर्थतन्त्र का पहिया जाम हो / EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। कोविड-19 महामारी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के उन छिपे कारकों को उजागर कर दिया है जिनमें सरकार की अपनी देनदारी भी है,इस राशि की वापिसी से अर्थतंत्र का पहिया घूमेगा और समाज के अंतिम बिंदु पर खड़े गरीब का भला होगा। इस राशि में राज्यों को जी एस टी (GST) में से मिलने वाला हिस्सा है, छोटी-बड़ी कम्पनियों को आयकर अदायगी के बाद मिलने वाली राशि है,और कई ऐसी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष राशियाँ है जो इस दुष्काल में राज्य सरकार, उद्ध्योगपति के पास लौटने पर गरीब का सहारा बन सकेगी। केंद्र और राज्य सरकारों को इस पर फौरन विचार करना चाहिए।

क्या कोई इंकार कर सकता है किआर्थिक गतिविधियों के पहिये को चलाने के लिए स्नेहक [लुब्रिकेंट ] जरूरी होता है | जो हमेशा सरकार मुहैया कराती हैं। इससे तमाम कारखाने और कारोबारी क्षेत्र सहजता से काम करते हैं। यह सर्व ज्ञात हकीकत है कि हमारे उद्योग, कृषि, सेवा और यहां तक कि घरेलू कामकाज तक किस हद तक गरीब-प्रवासी कामगारों पर निर्भर हैं। ये वे लोग हैं जो अत्यंत कम दैनिक वेतन पर गुजारा करते है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश की कुल आबादी में प्रवासी कामगारों की तादाद 36 प्रतिशत थी। आज यह तादाद और अधिक होगी। यह कामगार वर्ग ज्यादातर देश के बड़े शहरों में स्थित है जो देश की कुल आबादी का 30 प्रतिशत है।

बीते कुछ सप्ताह के दौरान लोगों का ध्यान उन प्रवासी श्रमिकों की समस्याओं पर केंद्रित रहा जो भूख, थकान और पुलिस हिंसा बरदाश्त करते हुए अपने घरों को लौट रहे थे। उन्हें भीड़भाड़ वाले गंदे स्थानों पर लॉकडाउन किया गया। ये प्रवासी आमतौर पर युवा हैं और अपने परिवारों और जीवन साथियों से वे मोबाइल फोन के माध्यम से जुड़े रहते हैं। उन्हें आय की असमानता का सामना करना पड़ता है और उनके चारों और संपत्ति का जलवा बिखरा रहता है, पर ये जलवा तब होता है जब अर्थतंत्र का पहिया एक लय में घूमें। यह लय सरकार उद्ध्योग और श्रम है।

अगर यह ताल बिगड़ी तो संभलना मुश्किल होता है। जैसे महाराष्ट्र सरकार केंद्र से जी एस टी के 16000 हजार करोड़ चाह रही है। जैसे पीथमपुर के उद्ध्योग मध्यप्रदेश सरकार से 1600 करोड़ वापिसी की मांग कर रहे है, यह राशि भी किसी कर राशि का प्रतिदेय है जैसे मध्यप्रदेश विंड एनर्जी आयकर से आनेवाले 2.5 करोड़ की प्रतीक्षा कर रही है। ये कुछ उदाहारण है, देश के स्तर पर ऐसे कई मामले हैं। इन पर निर्णय या तो हो नहीं रहे हैं या टाले जा रहे हैं। इन राशियों से लाभान्वित होने वाला अंतिम बिंदु श्रमिक है। जो इन दिनों घोर संकट में है।

इसका एक दुखद पक्ष यह भी है कि इस दुष्काल के पूर्व ये जिन शर्तों पर काम करते थे वे पूरी तरह नियोक्ताओं के पक्ष में थीं। उन्हें उनकी सेवाओं के बदले बहुत कम भुगतान किया जाता। अब ये शर्तें बदल सकती हैं क्योंकि अब यह स्पष्ट हो चुका है कि इन युवा प्रवासियों के बिना हालात कितने खराब हो सकते हैं। जब महामारी का असर कम होने लगेगा, तो हमें कुछ अहम मुद्दों का सामना करना होगा और उन्हें तत्काल हल करना होगा। मसलन सेवा शर्तें, उनके साथ होने वाला व्यवहार और उन्हें बेहतर भविष्य उपलब्ध कराने की बातें।इसमें धन और नीति दोनों लगेगी।

लॉकडाउन की घोषणा करते वक्त दैनिक मजदूरों या ठेके पर काम करने वाले मजदूरों के बारे में नहीं सोचा गया। वस्तुत: ये लोग अगर काम न करें तो इनको भोजन तक नहीं मिल पाता। यही कारण है कि हजारों लोगों ने अवहेलना करके सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांवों की ओर लौटना शुरू कर दिया। उन्हें शहरी लोगों से सहानुभूति और सहायता की कतई अपेक्षा नहीं थी। अब उन्हें पहले जैसी निराशाजनक शर्तों पर वापस लाना मुश्किल है।

इनमें बड़ी तादाद में गरीब हैं । वे ऐसी सामाजिक परिस्थितियां बना सकते हैं जिनके गहन राजनीतिक और आर्थिक निहितार्थ होंगे। ऐसे हालात में हिंसा की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। समझदारी का तकाजा यही है कि हम विभिन्न परिस्थितियों में सामने आने वाले विभिन्न परिदृश्यों पर विचार करें। ऐसी खतरनाक स्थिति से बचाव के उपाय किए जाएं। इन बातों को देखते हुए हमें नया सामाजिक समझौता कायम करना होगा जो श्रम शक्ति, उद्ध्योग और हमारी अर्थव्यवस्था के बीच की सहजीविता को स्वीकार कर सके। 

केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकार को उन्हें मौजूदा संकट से निजात दिलाने के लिए वित्तीय तथा अन्य सहायता की पेशकश करनी चाहिए। इस दौरान लालफीताशाही न्यूनतम होनी चाहिए। सरकार को सभी स्तरों पर काम करते हुए चरणबद्ध तरीके से यह सुनिश्चित करने की दिशा में काम करना चाहिए कि प्रवासी श्रमिक उद्योग और सेवा क्षेत्र के साथ तालमेल कायम करके अपने-अपने कार्यस्थल पर लौट आएं। हो सकता है इनमें से कुछ इकाइयां बंद हों और दोबारा शुरू नहीं की जा सकें। अन्य इकाइयों को सरकारी मदद की आवश्यकता हो सकती है। राज्य को यह प्रतिबद्धता भी जतानी चाहिए कि वह प्रवासी श्रमिकों को न्यूतनम वेतन और न्यूनतम काम सुनिश्चित कराएगा। उनका बीमा भी होना चाहिए। प्रवासी श्रमिकों के लिए आयुक्त जैसा सक्षम नियामक प्राधिकार होना चाहिए जो उनके हितों की रक्षा कर सके। राज्यों को भी ऐसे नियामक बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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