श्रीराम-रावण युद्ध दो विपरीत संस्कृतियों का संग्राम है। श्रीराम देव संस्कृति के पोषक हैं, वहीं रावण की संस्कृति दानवी है। देव संस्कृति के श्रीराम क्षत्रिय होते हुए भी स्वभाव से विनम्र, निरभिमानी, विनयशील, गुरुजनों का सम्मान करने वाले तथा एक पत्नीव्रती हैं वहीं रावण जाति से ब्राह्मण होते हुए भी दम्भी, लोलुप, सत्ता का लालची और मायावी रूप धारण कर देव संस्कृति को धोखा देने वाला है।
रावण पाँच भाई थे- अहिरावण, महिरावण, कुम्भकर्ण और विभीषण। रावण के शासनकाल में लंका अपने चरमोत्कर्ष पर थी। कई अवगुणों के होते हुए भी रावण परमवीर, शिवभक्त, प्रकाण्ड विद्वान, तन्त्र विद्या का ज्ञाता तथा प्रसिद्ध वीणा वादक था। रावण की वीणा का नाम रुद्र वीणा था। वह संस्कृत भाषा का परम विद्वान था। वह शिवजी का भक्त था। उसने शिव ताण्डव स्तोत्र की रचना की थी। वह वास्तुकलाविद्, कुशल राजनीतिज्ञ, तन्त्र विद्या को जानने वाला तथा मायावी रूप धारण करने वाला था। सीता-हरण इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि वो पंचवटी में, पर्णकुटी में वह साधु-वेष धारण कर आया।
रावण ने अपने सौतेले भाई कुबेर से युद्ध किया और उसके प्रसिद्ध पुष्पक विमान पर अपना आधिपत्य कर लिया था। रावण अति मानवीय, अलौकिक और अशुभ दानवी संस्कृति का अधिष्ठाता था। श्रीराम शील और सौन्दर्य के चरम प्रतिमान हैं। श्रीरामकाव्यों में हमें सहज सदाचारी मनुष्य की टक्कर एक विपरीत धर्मी दानव के साथ होते हुए परिलक्षित होती है। एक ओर विराट सैन्यबल है तो दूसरी ओर कन्दमूल फल पर निर्भर रहने वाली वानर सेना।
श्रीराम एक पत्नीव्रती है। 'रघुकुलरीति सदा चली आई, प्राण जाय पर वचन न जाई।Ó को ब्रह्म वाक्य मानने वाले हैं। माता-पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए वन गमन करते हैं। श्रीराम अपनी प्राण वल्लभा सीताजी तथा प्यारे भाई लक्ष्मण सहित मार्ग में आने वाली विभिन्न बाधाओं का सामना करते हुए पंचवटी पहुँचते हैं। वहाँ सीता के साथ मिलकर पर्णकुटी का निर्माण करते हैं। वहाँ निवास करते हैं। वहाँ रावण भगिनी शूर्पणखा परम सुन्दरी बन कर आती है। उसका सामना श्रीराम-लक्ष्मण से होता है। उसे अपने किए की सजा मिलती है और उसे अपने नाक कान से हाथ धोना पड़ता है। मारीच स्वर्ण मृग का कपट वेश धारण कर माता सीता का ध्यान आकर्षित करता है। रावण साधु का वेश धारण कर सीताजी का हरण करता है। श्रीरामजी स्वर्ण मृग का पीछा करते हैं और सीता जी लक्ष्मणजी को रामजी की दु:खभरी आवाज सुनकर उनकी सहायता के लिए भेजती है। यह कपट पूर्ण आवाज मारीच ही निकालता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहाँ इन वनवासियों के साथ मानव रूप धारण कर दानव धोखा देते हैं।
वन में विभिन्न स्थानों पर सीतान्वेषण करते हुए विरह दु:ख को कातर श्रीराम-लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचते हैं जहाँ ब्राह्मण वेश में हनुमानजी से भेंट होती है। बाली सुग्रीव से भेंट करते हैं। हनुमानजी माता सीता की खोज में निकल पड़ते हैं। श्रीराम के हृदय में आशा की किरण प्रस्फुटित होती है। समुद्र किनारे श्रीराम की सेना पहुँचती है और नल और नील की सहायता से रामसेतु का निर्माण किया जाता है। रावण से तिरस्कृत होकर रावण के छोटे भाई विभीषण श्रीराम की शरण में आते हैं। वे कहते हैं-
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरण कीन्ह-नहीं काऊ।।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दोहा ४६/७)
माता सीता की गणना पंचमहाकन्याओं में होती है- अहल्या, तारा, मन्दोदरी तथा सीता ये रामायणकालीन हैं। केवल द्रोपदी महाभारत कालीन हैं। ऐसी मातृस्वरूपा सीताजी का हरण रावण छद्म वेश में करता है। उन्हें अशोक वाटिका में राक्षसियों के संरक्षण में रखता है। उन्हें मानसिक यातनाएँ दी जाती हैं। जब राम-रावण संग्राम चल रहा होता है तब सीताजी को भयभीत करने के लिए श्रीराम का कटा हुआ नकली सिर (नरमुण्ड) उनके सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। रावण सीताजी को अपने वश में करने की बात कहता है।
नकली सीता को रथ में बैठाकर लाया जाता है। इन्द्रजीत उनके बाल पकड़कर घसीटता है। अपनी तलवार से नकली सीता के टुकड़े-टुकड़े करता है जिसे देखकर श्रीराम की सेना में व्याकुलता छा जाती है। श्रीराम भी शोक विह्वल होकर मूर्च्छित हो जाते हैं। भ्राता लक्ष्मण धैर्य धारण कर उन्हें सान्त्वना देते हैं। विभीषण सत्वगुण सम्पन्न हैं। वे श्रीराम को वास्तविकता से अवगत कराते हैं। वे कहते हैं कि यह इन्द्रजीत का इन्द्रजाल है। ये सभी घटनाएँ इस बात की परिचायक हैं कि येनकेन प्रकारेण रावण श्रीराम से युद्ध करना चाहता है। उसके मन में श्रीराम के प्रति घृणा व ईर्षा का भाव है।
रावण के दरबार में उसके ही गुप्तचर लक्ष्मणजी द्वारा भेजी गई पत्रिका लेकर पहुँचते हैं। वे कहते हैं-
रामानुज दीन्हीं यह पाती। नाथ बचाई जुड़ावहु छाती।।
बिहसि बाम कर लीन्ही रावण। सचिव बोलि सठ लाग बचावन।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दोहा ५५/९)
रावण मन ही मन भयभीत था और उसे लंकाधिपति होने का गर्व था। उसकी अपार सम्पदा स्वर्णमयी लंका इस बात की ओर इंगित करती थी कि वह श्रीराम से श्रेष्ठ है। उसने पत्रिका को बाएँ हाथ (वाम हस्त) में लिया। उसके चेहरे पर जो हँसी थी वह भी कुटिलतापूर्ण थी। यह इस बात की द्योतक थी कि उसने श्रीराम का निरादर किया। उसने मन्त्री से पत्रिका वाचन करने को कहा। यदि स्वयं वाचन करता तो सभा में पत्रिका के आलेख को सुना जा सकता था। लक्ष्मणजी की पत्रिका का आलेख उसके श्रवणगत हो जाता। वह पत्रिका स्वयं पढ़ना नहीं चाहता था। भारतीय संस्कृति के अनुसार कभी भी कोई पत्र वाम हस्त में नहीं लिया जाता है। यदि कोई व्यक्ति ले भी लेता है तो उसका तात्पर्य यह होता है कि यह शत्रु द्वारा भेजी गई पत्रिका है।
सुज्ञ पाठक इस बात से भली प्रकार से अवगत है कि वाम हस्त में कभी भी किसी पत्र को नहीं लिया जाता है। यदि हमारे घर पर डाकिया भी पत्र लेकर आता है तो हम उसे अपने सीधे (दक्षिण हस्त) में ही लेते हैं। यदि हमारे घर पर कोई सज्जन शुभ कार्य की कोई पत्रिका लेकर आते हैं तो हम बड़े आदर भाव से उनके निमन्त्रण को स्वीकार करते हैं और उन्हें जलपान कराते हैं। हमारी नई पीढ़ी के युवा वर्ग को सुन्दरकाण्ड की इन पंक्तियों से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि हम किसी के भी पत्र-पत्रिका को उल्टे हाथ (वाम हस्त) में न लें। लेते समय कुटिल हास्य न करें। अपना व्यवहार माधुर्य से सरोबार हो। यही हमारी गरिमामय संस्कृति की विशेषता है।
लेखक: डॉ. शारदा मेहता, ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)