कैसे माने देश में अमन चैन है ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

NEWS ROOM
नई दिल्ली। अब दिल्ली में हुए दंगों के कारण संसद नहीं चल पा रही है। हंगामे दर हंगामे के बाद दोनों सदनों की कार्यवाही स्थगित हो रही है सांसद निलंबित किये जा रहे हैं। लोकसभा के अध्यक्ष क्षुब्धता के कारण आसंदी पर नहीं आ रहे हैं। ये देश का ताजा हाल है। दंगा, जी हाँ दिल्ली का ताजा दंगा इसके बाद कोई किसी की नहीं सुन रहा है, सबसे बड़ी पंचायत भी असहज दिख रही है। आजादी के पहले और बाद में भी, देश के कुछ राज्य और उनके कुछ शहर दंगों, खासकर सांप्रदायिक दंगों के लिए बदनाम रहे हैं। ऐसा नहीं है कि देश का दिल कही जाने वाली दिल्ली में पहले कभी दंगे नहीं हुए।

इतिहास में ज्यादा पीछे न भी झांकें तो 1984 के सिख विरोधी दंगों से दिल्ली कैसे मुंह चुरायेगी? बेशक पूरे देश को ही शर्मसार करने वाले 1984 के वे दंगे दिल्ली के अलावा भी कई शहरों में फैले थे, लेकिन जब देश की राजधानी में ही दंगई बेखौफ और पुलिस-प्रशासन बेबस नजर आये, तब दूरदराज के हालात की तो कल्पना ही की जा सकती है। दिल्ली के इन हालिया दंगों ने यह बता दिया है कि 35 साल पहले हुए उन दंगों से किसी ने कोई सबक नहीं सीखा है। “न तंत्र ने और न ही लोक ने”। अगर कोई यह कहता है कि दिल्ली में ऐसे दंगे होने की आशंका नहीं थी, जैसे अचानक उत्तर-पूर्वी दिल्ली में भड़क उठे, तो मानना चाहिए कि वो पूरी तरह गलत है।

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) और नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) जैसे मुद्दों के विरोध में शाहीन बाग में ढाई महीने से आम रास्ते पर जारी धरने से लेकर दिल्ली विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों-नेताओं के वोट बैंक प्रेरित जहरीले नारों-बयानों तक जो कुछ चलता रहा, वह दिल्ली में शांति-सौहार्द बनाये रखने की कवायद तो कहीं से भी नहीं थी। संसदीय लोकतंत्र में विश्वास रखने वालों यह मानना चाहिए कि संसद सर्वोच्च है और कानून बनाना संसद का विशेषाधिकार। यह भी कि संसद में यह काम बाकायदा बहुमत से किया जाता है। हां, उस कानून की संवैधानिकता की परख सर्वोच्च न्यायालय कर सकता है। सीएए की संवैधानिकता की परख सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन भी है। ऐसे में अनिश्चितकालीन धरना औचित्यपूर्ण नहीं लगता। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त वार्ताकारों की मध्यस्थता के बावजूद धरना जारी रहना क्या संकेत देता है?

दुर्भाग्य से सबकी दिलचस्पी शाहीन बाग के मुद्दे पर वोटों का ध्रुवीकरण कर चुनावी लाभ उठाने में तो रही, लेकिन समस्या के समाधान में नहीं। वह चुनावी लाभ किसे कितना मिला, दावे से नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पिछले चुनाव में 70 में से 68 सीटें जीतने वाली आप इस बार भी 62 सीटें जीतने में सफल रही तो भाजपा की सीटें३ से बढ़कर 8 हो गयीं। कांग्रेस इस बार भी खाता तो नहीं ही खोल पायी, मत प्रतिशत भी गिर गया। सत्ता की हार-जीत के ये सारे खिलाड़ी उस वक्त परिदृश्य से नदारद नजर आये, जब खासकर उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कुछ इलाकों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का यह जहर नासूर बनकर दंगों के रूप में रिसने लगा। क्या विडंबना है कि जिस राजनीति से समाज में शांति-सौहार्द-सद्भावना की स्थापना की पहल की उम्मीद की जाती है, वही उसे सडक से संसद तक पलीता लगा रही है।

तमाम किंतु-परंतु के बावजूद जिन अरविंद केजरीवाल को दिल्लीवासियों ने, लगातार तीसरी बार दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया, वह बहुत देर बाद दंगाग्रस्त इलाकों में गये। दंगे थमने के बाद जांच और मुआवजे से लेकर संसद में हंगामे की रस्म पुरानी है, अगर देश के दिल दिल्ली में व्यवस्था तंत्र की काहिली का यह आलम है तो फिर शेष देश शांति की कल्पना ही बेमानी है।
देश और मध्यप्रदेश की बड़ी खबरें MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करेंया फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए
आप हमें ट्विटर और फ़ेसबुक पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं।

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!