किससे चाहिए आज़ादी ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

मध्यप्रदेश में आज़ादी मांगने का मौसम तैयार किया जा रहा है। इंदौर से वायरल हुए एक वीडियो में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी आज़ादी मांगने वालों के स्वर में स्वर मिला रहे हैं। यह आज़ादी की मांग दिल्ली की तर्ज न मांगे और न दें। मध्यप्रदेश का नागरिक होने के साथ यह मेरी  पुरजोर अपील। आजादी कहने को तो एक शब्द है।  यह कितना अहृलाद या खुशी देता है इसे तो सिर्फ गुलामी में पड़कर ही जाना जा सकता है। कितने भय और किन किन रास्तों पर चलकर हमारे पुरखों ने इस अहृलाद को पाया है। इसे लोग बिसारने लगे हैं, खैर जो भी हो, वर्तमान में स्वतंत्रता के क्या मायने रह गये हैं यह प्रश्न दिमाग को बार बार कचोटता है ? स्वतंत्रता की रीढ़  संविधान है , दूसरे शब्दों में यूं कहे कि संविधान लोगों के दिल में बसता है, तो भी गलत नहीं है। वर्तमान में चल रही  “आज़ादी की मांग”  को  क्या कहा जाये स्वतंत्रता के नाम पर उद्दंडता ? इसका निर्धारण तो अब जनता को ही करना शेष रह गया है। फैसला उसे ही करना है, इधर के या उधर के राजनेता तो इसके अर्थ विद्रूप करने में लगे हैं।

आजादी के बाद जब प्रजातंत्र की स्थापना हुई तब तक दुनिया में लोकदस्तूर का नारा बुलंद होने से सेक्युलरिज्म का बोलबाला हुआ और भारत में भी एक लंबे समय तक यह प्रभावी बना रहा । सब कुछ ठीक ठाक चल भी रहा था फिर कभी अचानक हिन्दू खतरे में आ गये तो कभी मुसलमान ? बुद्धिजीवी आज तक ये समझा नहीं पाये कि आखिर वो खतरा क्या था और किससे था और किसको था | बस  नेताओ ने  उन्हें समझा दिया गया कि “वो” खतरा है,और ये सब आसानी से इसलिये हुआ क्योंकि ये सब पहले भारतीय नही थे ! रह रह कर एक प्रश्न सामने आता है कि आखिर उन्हें भारतीय से हिन्दू  या मुसलमान बनाया किसने ? कितनी विडम्बना है कि सारा भारत पहले कुछ हैं, बाद में भारतीय  । यूँ इस तरह एक दूसरे से डरना एक दूसरे को डराना आज़ाद समाज का हिस्सा तो कहीं से नहीं हो सकता |  अब आज  आज़ादी की मांग का क्या अर्थ है ? उन्माद,उद्दंडता  और हिंसा का बेलगाम प्रदर्शन !

आज़ाद भारत में किससे किसको डर ? पर लोग डर तो रहे हैं मंशाये प्रत्यक्ष तो नहीं पर परोक्ष ही सही मन में डर और दिल को ठेस पहुँचा रही हैँ | इस तरह की सामाजिक आज़ादी जो कानून को लांघती हो वह लोगों का अधिकार नही उद्दंडता से किया अपराध है, फिर चाहे कोई भी हो अपराधी को अपराधी कहना और उसे दंड तक पहुचाना ही सही राष्ट्रीय स्वतंत्रता है।

आज़ादी अमूल्य होती है। आज़ादी का मतलब क्या है? आज़ादी मतलब आदमी के रूप में,संविधान और देश में प्रचलित विधि के अनुरूप जीने का अवसर। आज़ादी आदमी को आत्मविश्वासी, कर्तव्यपरायणता देश भक्त  और संवेदनशील बनाती है |’आज़ादी’  जीने का नया आस्वाद है। ‘आज़ादी’ देती है अपने विकास की गति को तीव्रतम करने की ताकत और अपने अनुसार विकास को तय करने की समझ। ‘आज़ादी ’ समाज में ‘गैरबराबरी’ की स्थिति पर प्रहार करती है और उसे परे ढकेल कर समाज में बराबरी का वातावरण पैदा करती है। ‘आज़ादी’ का गैरबराबरी से बैर होता है। गरीबी के लिए ‘आज़ादी ’ में कोई स्थान नहीं होना चाहिए और भेदभाव को ‘आज़ादी’में घुसने नहीं देना चाहिए । ‘आज़ादी ’ चिंतन के कई आयाम खोलती है और बराबरी से विमर्श का अवसर देती है।

स्वप्न तक में गुलामी अस्वीकार्य है । ‘आज़ादी ’ मनुष्य को मानवता के उच्चशिखर पर पहुंचती है और एक ‘पारस्परिकता’ का निर्माण करती है। ‘आज़ादी’ मनुष्य में स्वाभाविक उत्फुल्लता और उत्साह का सृजन कर देती है। ‘आज़ादी ’ अपने साथ आत्मनिर्णय का अवसर लेकर चलती है। किसी भी प्रकार के दबाव से मुक्त होकर मनुष्यता के उच्च शिखर की ओर बढऩे का अवसर का नाम ही ‘आज़ादी है।

आज ‘आज़ादी” कुछ खास तक ही स्वतंत्रता का सुख पहुंच रही है। क्या एक वर्ग ही स्वतंत्रता का आनंद उठा रहा है। बाकी शामिल होने वाली भीड़ है? ‘आज़ादी’ का एहसास क्या ऊपर से लादा जा सकता है अथवा क्या कोई इंजेक्शन देकर ‘आज़ादी’ का भाव पैदा किया जा सकता है? ‘आज़ादी’ का एहसास अंदर से आता है। बाहर से नारे लगा देने, भाषण पिलाते रहने से ‘आज़ादी’ का भाव पैदा नहीं होता।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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