विगत कुछ वर्षों से प्रदेश की ही नही बल्कि समूचे देश की सरकारी शिक्षा के गिरते स्तर और छात्रों की कम होती उपस्थिति को लेकर विभिन्न मंचो से आवाज उठाई गई लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों ने इस पर ध्यान देने की बजाय सरकारी शिक्षा के गिरते स्तर का जिम्मेदार केवल शिक्षक को ठहराते हुए उस पर निलंबन या अनिवार्य सेवानिवृति जैसी कार्यवाही करके अपने कर्तव्य से इतिश्री करते आये है। जबकि हकीकत में देखा जाए तो सरकारी स्कूलों की दुर्गति का मुख्य कारण सरकार की नीतियां रही है।
किसी भी सरकार के बजट का सबसे ज्यादा भाग शिक्षा ओर स्वास्थ व्यवस्था पर खर्च होता है ओर बदले में सरकार को इन दोनों विभागों से आवक लगभग शून्य के बराबर ही होती है। पिछले तीन दशक से सरकारे यह मंथन करने लगी कि किस प्रकार से शिक्षा और स्वास्थ्य पर बजट कम खर्च हो इस हेतू इन दोनों विभागों के निजीकरण पर गहन मंथन किया गया। देश में सरकारों द्वारा सबसे पहले शिक्षको की नियमित भर्ती रोकी गई और अल्पवेतन शिक्षक प्रणाली लागू की गई फिर आरटीई के नियम की तहत 25 प्रतिशत बच्चो को सरकारी खर्च पर प्राइवेट स्कूलों में दाखिला देने कि अनिवार्यता ने सरकारी स्कूलों की कमर तोड़ दी है।
आज हालत यह है कि देश भर के सरकारी स्कूलों में शिक्षको के लाखों पद रिक्त पड़े हुए है। आरटीई की तहत 25 प्रतिशत गरीब वर्ग के बच्चो को प्राइवेट स्कूलों में एडमिशन देने के नियम के चलते सरकारी स्कूलों में छात्रों के प्रवेश पर भी इसका भारी असर पड़ा है। आज देशभर में किसी भी राज्य के सरकारी स्कूलों की हालत देखेगे तो हजारों स्कूल ऐसे भी मिलेंगे जहा न तो शिक्षक है न बच्चे है। आज देशभर में लाखों सरकारी स्कूल अन्य सरकारी स्कूलों में मर्ज कर बन्द कर दिए गए है लेकिन इसको लेकर किसी ने भी आवाज नही उठाई क्योंकि शिक्षा के निजीकरण में सबका मोन समर्थन है।
आज दिल्ली को छोड़कर देशभर में सभी दूर सरकारी स्कूल राज्य सरकारों को बोझ लगने लग गए है। क्योंकि सरकारे शिक्षा का निजीकरण करना चाहती है। कई राज्य सरकारे खुद नही चाहती कि उनके राज्य की सरकारी शिक्षा सुधरे इसलिये वह न शिक्षको की भर्ती करती है ओर न अपने शिक्षको के वेतन भत्तों की कोई सुध लेती है। सभी राज्य सरकारे सरकारी शिक्षा की स्थिति दिल्ली राज्य सरकार जैसी चाहती है किंतु वास्तविक धरातल पर जब काम करने की बात होती है तो सरकारों की इच्छाशक्ति गायब हो जाती है। तभी तो कई राज्य सरकारे चाह कर भी अपने सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने की कोई ठोस पहल नही करती है।
कई राज्य सरकार सरकारी शिक्षा के निजीकरण के समर्थन में है इसलिए तो उनके राज्यो में सरकारी शिक्षा के निजीकरण की शुरुआत हो चुकी है। आने वाले कुछ सालों में हम सभी देखेगे कि सरकारी शिक्षा के निजीकरण के चलते सारे सरकारी स्कूल किसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में तब्दील हो जायेगे। किसी भी देश की उन्नति का सबसे बड़ा प्रतीक उसकी शिक्षा होती है। लेकिन विडम्बना यह है कि पिछले कुछ दशकों से देश के रसूखदारों ने पूंजीपतियों ने शिक्षा को व्यावसायिक बनाकर उसे निजी लाभ का धंधा बना दिया है जिसके कारण आज देश की सरकारी शिक्षा अब सरकारों को ही बोझ लगने लगी है। आज सरकारी शिक्षा का सरकारे निजीकरण खुलेआम कर रही है और विपक्ष मोन रहकर शिक्षा के निजीकरण का खुलेआम समर्थन कर रहा है।
- अरविंद रावल झाबुआ म.प्र.