सरकार ने दो जल विद्युत कंपनियों को नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन (एनटीपीसी) को बेचने का निर्णय लिया है। इन दोनों सरकारी कंपनियों को तीसरी सरकारी विद्युत कंपनी को बेचा जायेगा। ये दो कंपनियां हैं नार्थ ईस्ट इलेक्ट्रिक पॉवर कंपनी (नीपको) जो कि पूर्वोत्तर राज्यों में जल विद्युत बनती है और टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (टीएचडीसी) जो उत्तराखंड में जल विद्युत बनाती है। इन दोनों इकाइयों के सरकारी शेयरों को तीसरी सरकारी इकाई एनटीपीसी को बेच दिया जायेगा। इन इकाइयों पर सरकार का नियंत्रण पूर्ववत् बरकरार रहेगा। वर्तमान में इन इकाइयों पर सरकार का नियंत्रण सीधा है। ऊर्जा मंत्रालय के सचिव इनका नियंत्रण करते हैं। प्रस्तावित विनिवेश के बाद भी ऊर्जा मंत्रालय के सचिव ही इन कंपनियों पर नियंत्रण करेंगे। अंतर सिर्फ यह होगा कि ऊर्जा मंत्रालय के सचिव द्वारा नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन (एनटीपीसी) पर नियंत्रण किया जायेगा और नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन के मुख्य अधिकारी इन इकाइयों का नियंत्रण करेंगे।
यह घुमावदार नियंत्रण अनुचित है क्योंकि इन इकाइयों द्वारा जनता का शोषण किया जा रहा है। टीएचडीसी द्वारा उत्पादित बिजली को विभिन्न राज्यों को ११ रुपए प्रति यूनिट में बेचा जा रहा है। जबकि यह बिजली आज इंडिया एनर्जी एक्सचेंज में ३ रुपये में उपलब्ध है। इंडिया एनर्जी एक्सचेंज में बिजली की खरीद बिक्री निरंतर चलती रहती है। अतः किसी भी राज्य के पास विकल्प है कि वह टीएचडीसी से ११ रुपये में बिजली खरीदे अथवा ३ रुपये में इंडिया एनर्जी एक्सचेंज से। लेकिन तमाम राज्यों ने टीएचडीसी से खरीद के अनुबंध कर रखें हैं इसलिए ये महंगी बिजली खरीदने को मजबूर हैं। इस महंगी बिजली को बेचकर टीएचडीसी भारी लाभ कमा रही है। ११ रुपये में बेची गई इस बिजली का बोझ अन्तः देश के नागरिकों पर पड़ता है, जिसके द्वारा इस बिजली को खरीदा जाता है। इस प्रकार टीएचडीसी द्वारा जनता का दोहन किया जा रहा है।
प्रश्न उठता है कि राज्य के बिजली बोर्डों द्वारा यह महंगी बिजली क्यों खरीदी जाये? टीएचडीसी ने कई राज्य के बिजली बोर्डों के साथ अनुबंध कर रखे हैं, जिसके अंतर्गत परियोजना से उत्पादित बिजली का मूल्य परियोजना की लागत के आधार पर तय होता है। जैसे यदि परियोजना पूर्व निर्धारित २४०० करोड़ रुपये में पूरी हो जाती तो बिजली का मूल्य २.२६ रुपए प्रति यूनिट होता। लेकिन परियोजना की लागत बढ़कर ४४०० करोड़ हो गयी है इसलिए बिजली का मूल्य भी ५.०६ रुपये प्रति यूनिट हो गया है। लेकिन क्योंकि राज्यों नें इस बिजली को खरीदने का अनुबंध कर रखा है और परियोजना द्वारा उत्पादित बिजली का मूल्य सेंट्रल रेगुलेटरी अथॉरिटी द्वारा तय होता है इसलिए राज्यों को इस महंगी बिजली को खरीदने पर मजबूर होना पड़ेगा।
यही हालत दूसरी इकाई नीपको की है। इस परियोजना द्वारा भी कथित रूप से लाभ कमाया जा रहा है लेकिन महंगी बिजली बेची जा रही है। इस परियोजना की आंतरिक हालत का अंदाज इस बात से पता लगता है कि नीपको द्वारा ३०० करोड़ रुपये के बांड बाजार में बेचने के प्रयास किया गया था लेकिन केवल 13 करोड़ रुपये के ही बिके। बाजार को इस कंपनी पर भरोसा नहीं है।
टीएचडीसी और नीपको के शेयरों की बिक्री अपनी ही दूसरी इकाई को करने का उद्देश्य सिर्फ यह दिखता है कि सरकार अपने निवेश की उगाही कर सके। एनटीपीसी नें जो कुछ लाभ कमा रखे हैं। उस रकम का उपयोग वह टीएचडीसी और नीपको को खरीदने में लगाएगा और वह रकम केंद्र सरकार के हाथ में आ जायेगी। सरकार के दोनों हाथ में लड्डू हैं। शेयर का मूल्य मिल जायेगा और नियंत्रण भी सरकार के हाथ में ही रहेगा। इस प्रकार टोपी घुमाने से इन कंपनियों द्वारा जनता को महंगी बिजली बेचने का क्रम जारी रहेगा। सरकार को चाहिए कि समस्त सार्वजनिक इकाइयों का सामाजिक आकलन अथवा सोशल ऑडिट कराए कि इनके द्वारा जनहित वास्तव में हासिल हो रहा है या नहीं। इन्हें सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर इनका पूर्ण निजीकरण कर दे, जिससे कि बाजार के आधार पर इनके कार्यकलाप का संचालन हो और इनके द्वारा महंगी बिजली बेच कर जनता का दोहन बंद हो।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।