भावी “माँ” के साथ बढ़ता भेदभाव | EDITORIAL by Rakesh Dubey

इसे क्या नाम  दिया जाये देश के महानगरों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के भारतीय अधिकारी माँ बनने वाली महिलाओ को मातृत्व अवकाश और अन्य सुविधाएँ न देने से बचने के लिए नये हथकंडे अपना रहे हैं। वे भारत के नियमों से बचने के लिए मूल पंजीकृत कार्यालय और स्थानीय कानून का एक मकडजाल तैयार कर लेते हैं और महिला कर्मचारी उस अवकाश और सुविधा से वंचित हो जाती हैं जिसकी वे विधिवत हकदार हैं। मातृत्व अवकाश का कानून होने के बाद भी अधिकतर मामलों में महिला के गर्भवती होने पर कम्पनी उन्हें न तो छुट्टी देती है और न घर बैठे वेतन। जबकि  मातृत्व लाभ  कानून में महिला को गर्भवती होने के दौरान नौकरी से निकाले जाने के बारे में कड़े कानून हैं। इनके अनुसार गर्भधारण की घोषणा के बाद नौकरी से निकाले जाने को सामान्य परिस्थिति नहीं माना जा सकता। मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 के अनुसार गर्भवती महिला 26 सप्ताह के मातृत्व अवकाश की पात्र होती है।

एक शोध में महिलाओं को मेटरनिटी की छुट्टी न दिए जाने के कारण ढूंढ़े गये, जिसमें पाया गया कि कभी महिलाओं को ‘कैज़ुअल’, ‘डेली’ या ‘एडहॉक’ नियुक्त किए जाने की वजह से, कभी ‘अपॉइंटमेंट लेटर’ में बदलाव कर और कभी वेतन का मासिक होने की बजाय एक-मुश्त दिए जाने का बहाना बना कर अवकाश नहीं दिया जाता है। कुछ मामले तो ऐसे मिले जिनमें मातृत्व अवकाश के आवेदन का जवाब बर्खास्त करने की चिट्ठी से दिया गया। दिल्ली की एक मल्टीनेशनल के एचआर विभाग में काम करने वाली एक महिला के साथ भी ऐसा ही हुआ। उनका कहना है कि जब वे बेटे के जन्म के बाद दफ्तर वापस लौंटी तो उन्हें नौकरी पर वापस भी नहीं रखा गया।

मातृत्व अवकाश और इस दौरान मिलने वाली वेतन सुविधाओं को अगर महिलाओं को  मिली सहूलियत का हिस्सा मान भी लिया जाए तो भी कामकाजी महिला का गर्भवती होना और प्रसूति अब इतनी  आसान नहीं है। एक बच्चे की परवरिश और अपने करिअर की चिंता दोनों को बराबर अहमियत देने वाली महिला के लिए जिंदगी किसी पतली रस्सी पर पैरों का संतुलन साधने जितनी मुश्किल हो जाती है।

मनो वैज्ञानिकों की राय में एक महिला जब बच्चे को जन्म देकर दफ्तर पहुंचती है तो उसे कंपनी और कर्मचारियों के सहयोग और सहानुभूति की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। लेकिन होता विपरीत है अनेक मामलों में मां बनने के बाद जब वे दफ्तर पहुंचती हैं तो ज्यादा जिम्मेदारी वाले कार्य सौंपने से परहेज किया जाने लगता है । मातृत्व को एक कमजोर कड़ी के रूप में परिभाषित करने से भी गुरेज नहीं किया जाता।

परिणाम यह देखने को मिल रहा  है कि कानूनी झमेले में पड़ने और अदालती चक्कर लगाने की बजाय महिलाएं अपना इस्तीफा या भेदभाव चुपचाप स्वीकार कर लेती हैं। मुम्बई दिल्ली और इन नगरो के आसपास के क्षेत्रों में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि १८ से ३४ प्रतिशत नौकरीपेशा महिलाएं ही मां बनने के बाद काम पर वापस लौट पाईं।६० से ८० प्रतिशत महिलाओं को नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

यह एक बड़ी चुनौतीभरी स्थिति है। नये कानून के बाद  बड़ी कंपनियों में महिलाओं की ज़रूरतों के बारे में एक हद तक कुछ सोचा जाने लगा है, लेकिन मध्यस्तर की कंपनियों की सोच ऐसी नहीं है। उनके पास इस तरह की सुविधा देने के लिए वित्तीय क्षमता न होने का सीधा बहाना भी होता है। देश में जब तक महिलाओं की प्रकृति के प्रति सही समझ नहीं विकसित होगी और सरकार की ओर से सकारात्मक एवं व्यावहारिक उपायों को बढ़ाया नहीं जाएगा, वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी पर सवालिया निशान बना रहेगा।

जरा सोचिये ऐसे समय में जब महिला को उत्तम शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति और खुशनुमा माहौल की सबसे ज्यादा दरकार होती है, उससे उसकी नौकरी छीन कर उसे न सिर्फ मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है बल्कि आर्थिक रूप से भी कमजोर कर दिया जाता है। गर्भ धारण का पता चलते ही महिला कर्मचारी को नौकरी से निकाल देना कंपनी को सबसे अच्छा विकल्प जान पड़ता है। यह सब इस उम्मीद में किया जाता है कि वह खुद नौकरी छोड़ दे। ऐसा केवल छोटे संस्थानों में कार्यरत महिला कर्मचारियों के साथ नहीं हो रहा है, बल्कि बड़े-बड़े संस्थानों में भी महिलाएं गर्भावस्था के दौरान भेदभाव की शिकार हो रही हैं। यह जितना गैर-कानूनी है उतना ही अमानवीय भी है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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