खबरों का बाज़ार और बाजारू खबरें | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। आंकड़े कहते हैं कि देश में टीवी की पहुंच 83.6 करोड़ लोगों तक है जबकि इंटरनेट उपभोक्ता 66 करोड़ और समाचारपत्र पाठक 40 करोड़ ही हैं। टीवी दर्शक अनुसंधान परिषद [बार्क] के आंकड़े बताते हैं कि समाचार चैनलों की पहुंच 26 करोड़ से अधिक दर्शकों तक है। इसके साथ 5-10 करोड़ उन लोगों को भी जोड़ लीजिए जो ऑनलाइन माध्यमों से समाचार चैनल देखते हैं। वर्ष 2000 में जहां भारत में मुश्किल से दस समाचार चैनल थे, वहीं अब यह संख्या दुनिया में सर्वाधिक 400 के पार हो चुकी है। इनमें से आधे समाचार चैनलों का स्वामित्व रियल एस्टेट दिग्गजों, नेताओं और उनके सहयोगियों के पास है। 

मांग से अधिक चैनल वाला यह बाजार पूरी तरह गैर सरकारी और क्कुह हद तक सरकारी विज्ञापन पर निर्भर है। समाचारों और वैचारिकी बहस के एकतरफा रंग देखने को मिलते हैं। इस साल मध्य अक्टूबर तक देश के चार बड़े हिंदी समाचार चैनलों पर प्रसारित चार प्रमुख टीवी शो में होने वाली बहसों का उनका विश्लेषण बहुत कुछ साफ़ कर देता है। इस दौरान इन चैनलों पर प्राइम टाइम में हुई 202 बहसों में से 80 पाकिस्तान पर हमले से संबंधित थीं जबकि 66 बहसों के केंद्र में विपक्षी दल और जवाहरलाल नेहरू थे। हजारों जमाकर्ताओं की जिंदगी भर की बचत जिस पीएमसी बैंक के डूबने से खतरे में पड़ चुकी है, उस बारे में महज एक बहस हुई। शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, पर्यावरण, भीड़ की हिंसा, अर्थव्यवस्था या किसानों की बदहाली पर कोई भी चर्चा नहीं हुई। 

कई बार समाचार चैनलों पर परोसा जाने वाला उचिष्ट सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप संदशों की शक्ल में विस्तार पा लेता है। सम्मेलनों और गपशप वह ऐसे उत्पाद में बदल जाता है जो हमारे राजनीतिक एवं सामाजिक निर्णयों को बदलने लगता है। वैसे समाचार टीवी चैनलों का बाजार महज 3 से 4 हजार करोड़ रुपये है जबकि टीवी उद्योग का आकार 74000 करोड़ रुपये है। इतने चैनलों में से बमुश्किल दो चैनल ही लाभ कमाते हैं। वस्तुत:समाचार चैनलों ने सामाजिक रूप से उस भारत को तबाह कर दिया है जिसकी सारी दुनिया विविधता को जगह देने के लिए तारीफ करती रही है। सवाल उठता है कि क्या किया जा सकता है? तीन बिंदु काफी अहम हैं। 

पहला, दूरदर्शन और आकाशवाणी का संचालन करने वाले प्रसार भारती कॉर्पोरेशन को केंद्र सरकार से वित्तीय एवं प्रशासनिक तौर पर स्वतंत्र किया जाए। इसे बीबीसी की तर्ज पर एक विश्वस्तरीय सार्वजनिक प्रसारक बनने के लिए करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल करने दीजिए। ब्रिटेन में बीबीसी ऐसे मानदंडों का मानक तय करता है जिसके अनुसरण के लिए निजी चैनल बाध्य होते हैं। दूसरा, समाचार प्रसारण में विदेशी निवेश के स्तर को कुछ और बढ़ाया जाये। इससे कुछ प्रसारक भारत आयेंगे और प्रशिक्षण एवं रिपोर्टिंग में निवेश करेंगे यह काफी अच्छा होगा। भारतीय समाचार चैनलों के तेजी से बढऩे का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि जमीनी स्तर पर रिपोर्टिंग खत्म हो चुकी है और पूरी व्यवस्था एंकरों के इर्दगिर्द संचालित हो रही है।

तीसरा, चैनलों के स्वामित्व मानकों को बदलना होगा यह इसलिए अहम है कि अगर गुणवत्तापरक पत्रकारिता और अन्य दबावों में से चुनने का मौका आता है तो मालिक किसे तरजीह देंगे? यह तरजीह अभी हिचकोले खाती है जिससे यह यह दौर आया है भारतीय समाचार चैनलों की वर्तमान पत्रकारिता ने हमें शर्मसार भी किया है।

पिछले एक सप्ताह से जो कुछ चल रहा है वो खबरों के बाज़ार की ऐसी प्रतिस्पर्धा है जिसका अंत दुखद दिख रहा है। सोशल मीडिया को तो सरकार एडवाइजरी जारी करती है, इन्टरनेट बंद करके समाचार सम्प्रेष्ण को रोक देती है। दूसरी और वे चैनल जो सरकार के नजदीक है कुछ भी परोसने से गुरेज नहीं करते। सरकार सबसे बड़ी विज्ञापनदाता है। खबरों की प्रमाणिकता और खबरों के प्रसार से उसकी नीति प्रभावित होती हैं, उसका यह दायित्व होना चाहिए कि सम्पूर्ण मीडिया को समान दृष्टि से देखे ।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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