ऐसा भी क्या बोलना पूर्व प्रधानमंत्री का......! | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। यह 2019 बनाम 2014 है। 2014 में चुप रहने वाले पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मन मोहन सिंह बोल उठे हैं | तब नरेंद्र मोदी बोल रहे थे, मनमोहन सिंह चुप थे अब नरेंद्र मोदी चुप हो जाते अगर बात सलीके से रखी जाती। डॉ. सिंह ने एक समाचार पत्र में आलेख लिखकर मोदी सरकार के आर्थिक प्रदर्शन पर निशाना साधा है। उन्होंने लिखा है कि कीमतों पर जीडीपी वृद्धि दर 15 प्रतिशत के निचले स्तर पर है। आम परिवारों की खपत चार दशक के निचले स्तर पर है, बेरोजगारी 45 वर्ष के उच्चतम स्तर पर है, बैंकों का फंसा हुआ कर्ज अब तक के उच्चतम स्तर पर है।

बिजली उत्पादन की वृद्धि 15 साल में सबसे धीमी है वगैरह...वगैरह। डॉ. सिंह द्वारा की गई आलोचना में कांग्रेस की कमियों को छिपाने की भावना अधिक है, बजाय कि नई व्यवस्था की कमियां उजागर करने के। 2014 में नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 'मौन' मोहन सिंह कहकर पुकारा था। डॉ. सिंह का मजाक उड़ाते हुए कहा जाता था कि वह देश में घट रही तमाम घटनाओं पर खामोशी का रुख अपनाए रहते हैं। इनमें भ्रष्टाचार के मामलों (राष्ट्रमंडल खेल, एयर इंडिया, दूरसंचार स्पेक्ट्रम आवंटन, कोयल और लोहा) से लेकर नीतिगत पंगुता और भूमि हथियाने के मामलों के साथ-साथ निर्भया जैसे मामलों से ठीक से न निपट पाना शामिल था। 

अब डॉ. सिंह कहते हैं कि देश में माजिक मोर्चे पर आपसी विश्वास और आत्मविश्वास एकदम निचले स्तर पर है और इसका असर आर्थिक वृद्धि पर भी पड़ रहा है। फिलहाल सामाजिक भरोसे का हमारा तानाबाना पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। उद्योगपति सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रताडि़त होने की आशंका में जी रहे हैं, बैंकर नए ऋण देना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें आशंका है कि उनको प्रताडि़त किया जा सकता है। उद्योगपति नई परियोजनाएं शुरू नहीं करना चाहते, तकनीकी क्षेत्र के स्टार्टअप निरंतर निगरानी और आशंका में जी रहे हैं जबकि नीति निर्माता सच बोलने या ईमानदार नीतिगत चर्चाओं से बच रहे हैं। डर और अविश्वास का असर आर्थिक लेनदेन पर पड़ता है और आगे चलकर यह मंदी का सबब बनता है।

अब तुलना की जाए तो यह तस्वीर काफी अतिरंजित है। खासकर अगर सन 1991-96 की कांग्रेस सरकार से तुलना की जाए, जब सिंह वित्त मंत्री हुआ करते थे। सन 2004 से 2014 तक के हालात भी इससे अलग नहीं थे। उस वक्त सिंह प्रधानमंत्री थे। सिंह की दलील में दो दिक्कतें हैं: वह चुनिंदा बातें उठाते हैं और हालिया घटनाओं की बात करते हैं। 

आपको भले ही पता नहीं हो लेकिन डॉ. सिंह को यह पता होगा कि आर्थिक कदमों के परिणाम थोड़ा विलंब से सामने आते हैं। स्पष्ट है कि आज जो हालात हैं उनका संबंध वर्षों पूर्व उठाए गए कदमों से होगा। हम आज जो कीमत चुका रहे हैं वह केवल मोदी सरकार के साथ पिछली सरकारों की गलत नीतियों की भी भूमिका है। मौजूदा आर्थिक मंदी का एक बड़ा कारण सरकारी बैंकों द्वारा बड़े पैमाने पर भ्रष्ट तरीके से दिए जाने वाले ऋण का बंद होना भी है। 10 लाख करोड़ रुपये के फंसे कर्ज से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पहले किस प्रकार ऋण दिया जाता था।

डॉ. सिंह को लगता है कि समाज की आर्थिक भागीदारी में विश्वास और भरोसा बहाल करके निजी निवेश को बढ़ावा दिया जा सकता है और इस प्रकार देश की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकता है।अकेले भरोसे और विश्वास से आर्थिक वृद्घि नहीं हासिल होती। प्रतिस्पर्धा, पारदर्शिता और निष्पक्षता के साथ बाजार में प्रवेश और निर्गम के सहज मार्ग से ऐसा होता है। और यह सब जानते है कि डॉ सिंह सरकार ने कभी ऐसा एक भी कदम उठाया हो जो इस व्यवस्था को आगे ले जाने वाला हो। 1990 में जब वे वित्त मंत्री थे तब भारत में प्रतिभूति घोटाला हुआ था। इसके अलावा भी तमाम वित्तीय घोटाले हुए थे। सरकारी बैंकों की भ्रष्ट ऋण व्यवस्था के तहत सरकारी धन की लूट हुई। दूरसंचार लाइसेंसिंग, एनरॉन और अन्य निजी बिजली परियोजनाओं में शासन की विफलता सामने आई। इन तमाम वजहों से मुद्रास्फीति दो अंकों में पहुंच गई।

बोलने की सबको आज़ादी हैं, इन्हें भी थी उन्हें भी है, परन्तु देश रसातल में जा रहा है। मेरी कमीज़ तेरी कमीज से सफेद जैसी बाते छोड़ देश के समग्र हित में चिन्तन कीजिये। यह सलाह दोनों को है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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