देश में अराजकता जिम्मेदार कौन “? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। इन दिनों भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा, सांप्रदायिक उपद्रव इत्यादि भयावह खबरों का विश्लेष्ण चल रहा है स्व शरद जोशी के प्रसिद्ध नाटक “अन्धो का हाथी” में जिस तरह अंधे हाथी की व्याख्या अपने-अपने स्पर्श-अनुभव के आधार पर करते है उससे अलहदा आज की स्थिति नहीं है और यह देश की ध्वस्त होती आपराधिक न्याय व्यवस्था पर प्रश्नचिंह है न्यायपालिका, पुलिस, सिविल प्रशासन और राजनेता अब तक एक-दूसरे पर अंगुली उठाते रहे हैं। प्रत्येक क्षेत्र में दशकों के कुप्रशासन और कुप्रबंधन हावी है। कोई उपाय न तो सरकार सुझा रही है, न प्रतिपक्ष और न ही वे जो इन घटनाक्रमों के व्याख्याकार हैं

आज हर बड़े अपराध सबसे पहला उपाय विशेष जांच दल का गठन करना या कुछ मामलों में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) या राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) इत्यादि को सौंप देना ही शेष बचा है। कोई घटना होने पर चलताऊ कार्रवाई करने वाली नीति पर अमल का जिम्मा अब स्थानीय थानों और राज्य पुलिस से अन्य संस्थानों में चला गया है। हालांकि, यह स्थानीय थाने और राज्य पुलिस का फर्ज है कि वे अपने कार्यक्षेत्र में हुए अपराध की जांच करे और केस दर्ज करे। परंतु जांच और मुकदमा दायर करने की गुणवत्ता में ह्रास से लोगों में स्थानीय पुलिस पर से भरोसा उठता चला गया। दुर्भाग्यवश इस रवैये ने राज्य पुलिस की व्यावसायिक दक्षता में और आगे क्षरण किया है।

पिछले सप्ताह में हुए उपद्रवों आगजनी सरकारी सम्पत्ति के सन के साथ पंजाब, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड के जनजातीय इलाके में आतंकवाद की विभिन्न किस्मों पर एक साथ विचार किया जाना चाहिए। इसके अलावा यह भी सोचें कि जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्वी राज्य लगातार समस्याग्रस्त क्यों हैं। इस बिंदु पर कोई असहमति नहीं हो सकती कि इन आंदोलनों में ज्यादातर के उपजने के पीछे विभिन्न राजनीतिक दलों के नापाक उद्देश्य और भूमिकाएं थीं। यहां तक कि राजनीतिक दल और उनके अंदर के गुटों की किस्म-किस्म की शह और समर्थन इन संघर्षों के उद‍्भव और फूलने-फलने में मदद की और कर रहे हैं। उनका उद्देश्य अपनी राजनीति को चमकाने और हवा देने तक सीमित हो लेकिन आगे चलकर ये आंदोलन उनके हाथ से निकल जाते हैं। यही अभी तक का अनुभव है।

इस सब में पुलिस किसी भी तरह परिणाम हासिल हेतु अपने स्थापित साधारण तौर-तरीकों और विभागीय नियम संहिता से हटकर काम करने लगती है और गैर-रिवायती एवं गैरकानूनी उपाय बरतने में गुरेज नहीं करती। संक्षेप में कहें तो एन्काउंटरों की संस्कृति, संदिग्ध को मार डालने या गायब कर देने जैसे तरीकों का उद‍्भव हुआ। लेकिन उक्त तरीकों ने आम बेगुनाह लोगों की जान की बर्बादी के अतिरिक्त खुद पुलिस की व्यावसायिक दक्षता और निष्ठा का बहुत नुकसान किया है। कुछ राज्यों में सशस्त्र आंदोलन दशकों से चल रहे थे और इनमें कुछ पर सालों की कड़ी मशक्कत के बाद ही नियंत्रण पाया जा सका था। यह धारणा बनना स्वाभाविक है कि राज्य पुलिस ने उक्त गैर-रिवायती एवं गैर-कानूनी उपाय केंद्र और राज्य सरकारों का परोक्ष एवं अपरोक्ष समर्थन के बाद ही अपनाए थे। यहां केंद्र सरकार का जिक्र इसलिए है क्योंकि कुछ राज्य लंबे समय तक राष्ट्रपति शासन के तहत रहे हैं और जाहिर है सभी निर्देश केंद्रीय गृह मंत्रालय से जारी होते हैं।

दुःख के साथ कहना पड़ता है कि आज निराशा और अपनी असमर्थता का आलम इस देश के ज्यादातर क्षेत्र में व्याप्त है। अपने आसपास हम मूल्यों मे पतन और अव्यवस्था बनते देख रहे हैं। राजनीतिक और प्रशासन के क्षेत्र में ऐसे ‘बौने’ छाए हुए हैं जो खुद को कद्दावर महान नेता एवं नया पथप्रदर्शक समझ रहे हैं। ये बौने अपने चारों ओर यह भी देख रहे हैं कि आम लोग बिना किसी बड़ी उम्मीद बुरी तरह खट रहे हैं, बचपन मलिन और व्यर्थ होता जा रहा है, समाज के एक बड़े वर्ग के के पास न तो शिक्षा है और न साधारण स्वास्थ्य सुविधा और सबसे खराब बात यह है इस निराशा के काले बादलों में आशा की सुनहरी किरण नदारद है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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