यह पांच लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था का रास्ता नहीं है | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। अयोध्या का फैसला आने के पूर्व सरकार को संकट की आशंका थी देश के नागरिकों ने सरकार की आशंका को निर्मूल साबित कर दिया | देश शांत है, पर सरकार  के सामने एक बड़ा संकट आ रहा है, ‘राजकोषीय संकट”। वित्त आयोग की रिपोर्ट सामने आने के बाद यह संकट उजागर हो सकता है। इस  स्थिति में केंद्र सरकार के भारी-भरकम बकाया बिल, छिपे हुए व्यय, राजस्व में कमी तथा राज्यों की कर में से हिस्सेदारी वापसी मुद्दा हो। 

सरकार अपने मतदाता समूह के लिए अनुकूल कार्यक्रमों पर व्यय कर रही है। इसकी शिकायत भला किससे की जाए। उन कदमों की तलाश हैं जिनसे राजकोष के लिए धन जुटाया जाएगा। वर्तमान में पूंजी का या तो गलत तरीके से इस्तेमाल हो रहा है या उसे नष्ट किया जा रहा है। वित्तीय क्षेत्र डूब रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र भारी रकम निगल रहा है। वर्तमान में दिवालिया दूरसंचार कंपनियां  वेतन तक देने की स्थिति में नहीं हैं। रेलवे में ढेर सारी नकदी लगी है लेकिन आवाजाही या राजस्व के मोर्चे पर कोई खास बढ़ोतरी नजर नहीं आती। दिवालिया प्रक्रिया का किस्सा अलग ही है। गैर जवाबदेह किस्म के मुख्यमंत्री ऊर्जा अनुबंध रद्द करके पूंजी को नष्ट कर रहे हैं। विभिन्न क्षेत्रों का कुप्रबंधन करने वाले नियामक मसलन दूरसंचार क्षेत्र के नियामक आदि ने भी पूंजी को क्षति पहुंचाई है। 

सर्वोच्च न्यायालय भी ऐसे मामलों में कोई मदद नहीं कर पाया है। मूल बात यह है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि संभावनाएं अभी भी उच्च बचत और निवेश दर में निहित हैं लेकिन यदि निवेश की गई राशि बिना किसी ज्ञात कारण के डूब जाए तो ऐसे में क्या कहा जा सकता है। अचल संपत्ति क्षेत्र की कहानी भी इससे अलग नहीं है।

ऐसे में आरोपों को नकारे जाने की प्रवृत्ति भी बद रही है। बड़े क्षेत्रीय कारोबारी समझौते से बाहर रहने का निर्णय भी शायद कोई विकल्प न होने की स्थिति में लिया गया है,  परंतु यह कहना समझदारी नहीं है कि यह साहसी नेतृत्व का उदाहरण है। जब बंगलादेश के पूर्व में स्थित हर देश इसमें शामिल हो और भारत यह नहीं  बताता है कि गड़बड़ी भारत में ही है। यह बीते पांच साल में नेतृत्व की नाकामी दर्शाता है। यह सुधार की कमी है और बताता है कि हम सबसे बड़े और तेज विकसित होते क्षेत्र के साथ एकीकृत नहीं हो पाए।

अब बात पिछले मुक्त व्यापार समझौतोंकी | इन समझौतों को  भारत के पक्ष में कारगर नहीं होने को लेकर दी जा रही दलील गलत है, उनसे थोड़ा फर्क तो पड़ा। भारतीय बाजार में चीनी उत्पादों की भरमार हो जाने की आशंका वास्तविक हो सकती है और नहीं भी। लेकिन चीन के साथ व्यापार घाटा केवल आधी कहानी ही है, भारत का इस क्षेत्र के अमूमन हरेक देश के साथ बड़ा व्यापार घाटा है। ऑस्ट्रेलिया के लिए दरवाजे खोलने का मतलब कृषि क्षेत्र को खोलना है, न्यूजीलैंड के मामले में यह डेरी उद्योग है और आसियान देशों के मामले में दूसरे कृषि उत्पादों के लिए अपने दरवाजे खोलना है। 'ऐक्टिंग ईस्ट' के बजाय अपना तवज्जो 'लुकिंग वेस्ट' पर लाने के लिए अमेरिका के साथ व्यापार समझौते करने आसान नहीं होंगे, खासकर उस समय जब विश्व व्यापार संगठन में व्यापारिक विवादों पर शिकस्त मिल रही हो।

यह सम्भावना गलत नहीं है कि हम बाद में आरसेप का हिस्सा बन सकते हैं लेकिन घरेलू स्तर पर जीत दर्ज करने वाले लॉबी समूह संरक्षणवादी हैं तो वे सरकारी नीति-निर्माताओं पर अपना नियंत्रण क्यों कम कर देंगे? आयात शुल्कों में कटौती, कृषि उत्पादकता को दोगुना करने और बिजली दरों में क्रॉस सब्सिडी खत्म करने के लिए हमारी तैयारी की कार्ययोजना और समयसीमा कहां हैं? या संगठित रिटेलरों को हतोत्साहित होने पर क्षेत्रीय आपूर्ति शृंखलाओं में घुसने की क्या तैयारी है? सरकार ने आयात शुल्क बढ़ा दिए हैं और एक डंपिंग-रोधी चैंपियन बन चुकी है। ऐसे में भारत पहले से अधिक अंतराभिमुख होता जा रहा है। सवाल यह है कि व्यवस्था कैसे खुल सकती है या अधिक प्रतिस्पद्र्धी हो सकती है? प्रतिस्पद्र्धी इकाइयों को वे लोग बाजार से निकाल बाहर कर दे रहे हैं जो प्रतिस्पद्र्धी नहीं हैं। पराजित ही जीत रहे हैं। पांच लाख करोड़ डॉलर की मंजिल की राह यह तो नहीं है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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