देश के मौसम की दशा को देखते हुए यह सवाल उठना लाजिमी है कि पानी की बढ़ती जरूरत एवं जलवायु परिवर्तन के इस दौर में अपनी नदियों के अधिकारों को कैसे बहाल किया जाए? नदी का अविरल बहना उसका अधिकार है । जिसे अब राजनीति बना दिया गया है। नदियों के बहने और और रोकने के लिए राजनीति होती है। देश के राज्य आपस में करते हैं तो दो पडौसी देश भी इससे नहीं चूकते हैं। सही मायने में हर नदियों के प्रवाह अब राजनीति से जुड़ गया है। आप नदी के अविरल बहने असहमत हो ही नहीं सकते, क्योंकि नदियों के इस नैसर्गिक अधिकार का सवाल उस समय बेहद जटिल एवं राजनीतिक हो जाता है जब पानी की कमी हो या पानी जरूरत से ज्यादा बरस जाये।
बड़ा प्रासंगिक सवाल है नदी और पानी। प्राकृतिक संसाधन पानी का पुराने एवं नए उपभोक्ताओं के बीच पानी का पुनर्वितरण कैसे हो? यह काम बेहद कठिन है।नहर बनाई जाती हैं, मोड़ी जाती है खोली और बंद की जाती है। इस पुनर्वितरण से तनाव पैदा होता है और कुछ जगहों पर यह खूनी संघर्ष का भी रूप ले लेता है। भारत में अब भी करोड़ों लोग खेतों में काम करते हैं और उन्हें अपनी आजीविका के लिए पानी की जरूरत है।समस्या यह भी है कि शहर एवं उद्योग पानी तो लेते हैं लेकिन इसके बदले वे अपशिष्ट पदार्थ एवं प्रदूषण देते हैं। वे नदियों को नष्ट कर देते हैं और इस तरह पहले से ही कम उपलब्ध पानी और भी लुप्त हो रहा है। लिहाजा इस संघर्ष में नदियों के पास कोई अधिकार नहीं रह जाता, उनमें अविरल प्रवाह के लिए पानी ही नहीं है। नदी के पास समुचित जल नहीं होने से वह इंसानों के पैदा किए हुए अवशिष्ट को बहाकर ले भी नहीं जा पाती। यह अपनी सफाई खुद नहीं कर सकती है और रोज कई मौतें होती है।
हम भारतीयों को जल प्रबंधन के बारे में अपनी समझ एवं जानकारी के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है। आज बारिश होती है तो आसमान से बूंदें नहीं गिरती है, सैलाब आता है। इस साल के मॉनसून में ही हम भारी एवं बहुत भारी बारिश के 1000 से अधिक मामले गिन चुके हैं, कई जगहों पर एक ही दिन में औसत बारिश की तुलना में 1000 से 3000 प्रतिशत अधिक बारिश हुई है। नतीजतन, इन जगहों पर बाढ़ आ गई। इससे भी बुरी बात यह है कि बाढ़ के बाद सूखे के हालात बन गए क्योंकि अतिवृष्टि वाले स्थानों पर अतिरिक्त पानी सहेजने के लिए जरूरी ढांचा ही नहीं है। जल निकासी की समुचित व्यवस्था नहीं है, तालाबों एवं पोखरों को बरबाद किया जा चुका है। इस तरह सूखे के समय बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। यह सामान्य न होकर बेहद असामान्य बात है। अभी तो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव दिखने ही शुरू हुए हैं। आगे चलकर तापमान और बढ़ेगा।
हमें अत्यधिक बारिश के दौर में बांधों की भूमिका पर भी सिरे से सोचने की भी जरूरत होगी। बांधों का निर्माण पानी एकत्र करने और प्रवाह के नियमन के लिए किया गया था। लेकिन अब पानी को इस तरह रखना काफी जोखिम भरा होता जा रहा है क्योंकि बांधों के प्रबंधकों के पास अत्यधिक बारिश की स्थिति में एकत्र पानी छोडऩे के सिवाय कोई चारा नहीं रह जाता है। अचानक पानी छोड़े जाने से बाढ़ एवं प्रलय जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। इससे व्यापक स्तर पर जनजीवन नष्ट होता है। इस मुद्दे पर हमें उस अवधारणा पर गौर करने की जरूरत है जिससे हम नदियों में आने वाली बाढ़ और उसके बाद सूखे की वास्तविकता का सामना कर सकें । यह एक मौका भी है क्योंकि अगर हम नदियों को अविरल बहने का अधिकार देते हैं तो हम कुछ सीख जाएंगे।
हमें अत्यधिक एवं असमान बारिश से निपटने के रास्ते खोजना होंगे। हरेक बूंद को संरक्षित किया जाए और निकासी के लिए समुचित ढांचा बनाया जाए। हरेक जलस्रोत, हरेक नाले को गहरा एवं संरक्षित किया जाए ताकि बाढ़ के पानी को जमा किया जा सके। भारत में जलभंडार प्रणालियां बनाने की असाधारण एवं विविध परंपरा रही है। हरेक नाला, गड्ढा और जलस्रोत को इस तरह संरक्षित किया जाए कि बाढ़ का पानी भूमिगत जल को रिचार्ज करने में इस्तेमाल किया जा सके जो सूखे की स्थिति में काम आएगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।