भरे हुए भंडार और भूखा भारत | EDITORIAL by Rakesh Dubey

खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग ने पत्र लिखकर सुझाव दिया है कि भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में और ज्यादा अनाज रखने की गुंजाइश नहीं है, अतएव फालतू खाद्यान्नों को बतौर मानवीय सहायता एवं दान जरूरतमंद और पात्र देशों तक पहुंचाया जा सकता है। यह पत्र जब लिखा जा रहा था तब ही आंकड़े बता रहे थे, कि अपने ही देश भारत में 6 से 8 माह के शिशुओं में लगभग ९० प्रतिशत  कुपोषण के शिकार हैं ।देश में  प्रत्येक एक सेकेंड कोई न कोई एक बच्चा कुपोषित हो रहा है।

तो यह अनाज विदेश क्यों ? क्या भारत के नागरिक मानव नहीं है, या सरकार का मानवीयता का पैमाना बदल गया है। उपलब्ध आंकडें कहते हैं कि 1 अक्तूबर, 2019 के दिन कुल जनसंख्या के हिसाब से देश को 3३०७.७० लाख टन खाद्यान्न की आवश्यकता है लेकिन राष्ट्रीय खाद्य निगम के गोदाम एक महीने पहले ही १  सिंतबर के दिन दुगनी से अधिक सामग्री ६६९.१५ लाख टन गेहूं-चावल से अटे पड़े थे। तिअभी  खरीफ फसल में धान लहलहा रही है, आने वाले कुछ हफ्तों में केंद्रीय पूल की खाद्य भंडारण सामर्थ्य पर और ज्यादा बोझ पड़ने की पूरी उम्मीद है। फलों और सब्जियों की फसल ने कीर्तिमान कर दिया है, दूध का उत्पादन अलग से १७६  मिलियन टन को पार कर गया है। खाने-पीने की इतनी बहुतायत के चलते अब कोई कारण नहीं है  जिससे भारत में विश्वभर में सबसे ज्यादा भुखमरी के शिकार मौजूद हों। फिर गडबडी कहाँ है ?

फालतू अनाज का इतना विशाल भंडार होने के बावजूद अंतरराष्ट्रीय भुखमरी सूचकांक में भारत को अपने पड़ोसी मुल्कों से भी नीचे आ गया है। वर्ष २००६  से शुरू होकर, जब से अंतरराष्ट्रीय भुखमरी सूचकांक जारी होने शुरू होने हुए हैं, तब से आई १४  रिपोर्टों में भारत की स्थिति सुधरी नहीं है |

सारे सवाल प्राथमिकताओं के हैं, सरकार का  सारा ध्यान  आर्थिक विकास की ऊंची दर पाने पर लगा है , भूख और कुपोषण को आर्थिक उन्नति की चमक ने प्राथमिकता सूची से बाहर कर दिया है। सवाल यह है कि आर्थिक उन्नति होने से भूख कम हो जाएगी ? नही, शिकार जनसंख्या खुद-ब-खुद घट जाएगी। वैसे यह तब भी हुआ था जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कुपोषण को एक ‘राष्ट्रीय शर्म’ कहा था। उनसे पहले रहे प्रधानमंत्रियों ने भी समय-समय पर भुखमरी से लड़ने का संकल्प दोहराया था, लेकिन भूख और कुपोषण का भारत में कोई अंत नहीं हैं।
भुखमरी हटाना वाकई एक जटिल कार्य है। वैसे भी भारत में नीतियां ज्यादातर खाद्य उत्पादन बढ़ाने पर केंद्रित होती हैं, परंतु फालतू अनाज को कमी वाले क्षेत्र में बांटना एवं किसानों की भलाई प्राथमिकता पर कहीं दिखाई न देती है, तो सिर्फ चुनाव में | कृषि का पुनरुत्थान करना मूल सिद्धांत होना चाहिए।  जो सिर्फ लालीपाप  की तरह दोहराया जाता है | क्या इस परिप्रेक्ष्य में  हर वर्ष अधिक होते खाद्यान्न उत्पादन और आर्थिक नीतियों को नए सिरे से निर्धारित करने जरूरत नहीं  है ? इसके लक्ष्य पुननिर्धारित करने के  दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत है,  यही भुखमरी को मिटा सकती है।

कृषि, कृषक, कृषि उत्पादन, नीयत और नीति का ईमानदार होना बहुत जरूरी है, इसके अभाव में भूख बढ़ेगी और तब उस विकास का हम क्या करेंगे जिससे पेट की आग भी न बुझ सके। पेट की आग से धधकते दूसरे देशों से सबक लेना चाहिए। कृषि, कृषक, उत्पादन का सही वितरण और भूख को केंद्र में रख कर एक राष्ट्रीय नीति की तुरंत जरूरत है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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