नई दिल्ली। देश में भारी वर्षा और उसके बाद की परिस्थतियों का तांडव हैं | इसका सारा दोष जलवायु परिवर्तन पर मढऩे की कवायद शुरू हो चुकी है। याद रहे तीन दशकों में बारिश का वितरण एवं सघनता में बदलाव होने से नीति-निर्माताओं के लिए एक बड़ी चुनौती है कि वे लंबे समय से लंबित सुधारों को लागू करें। केवल सुधारों के ही रास्ते हम अतिवृष्टि की घटनाओं के बुरे प्रभावों को कम कर सकते हैं और उससे बच सकते हैं।
हमेशा से भारत में बाढ़ नीति के केंद्र बिंदु में इंजीनियरिंग समाधान रहे हैं| पिछले सालों में भारत ने विशालकाय बांधों के अलावा भारत ने अपनी नदियों के डूब-क्षेत्र में 35000 किलोमीटर लंबे तटबंध भी बनाए हैं। लेकिन वक्त के साथ यह समस्या और भी गंभीर होती गई है। सरदार सरोवर बांध मध्यप्रदेश (Sardar Sarovar Dam Madhya Pradesh) में उसके परिणाम दिखा रहा है | अनेक विस्थापितों का पुनर्वास नहीं हुआ है | बढती- घटती ऊंचाई के खेल से दो-दो हाथ करते पीड़ित अब जान देने को उतारू हैं | किसी भी क्षण कोई अशुभ सूचना नर्मदा पर बने इसे बांध से आ सकती है |
इस बांध के निर्माण, उसकी वर्तमान स्थिति और केंद्र की विभेदकारी नीति कुछ भी करा सकती है | इसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं होगा| सरकारें होंगी| राज्य और केंद्र की सरकार | वैसे हम बाढ़ प्रबंधन (Flood management) के हमारे नजरिये का मूल औपनिवेशिक काल से जोड़ सकते हैं। पूर्वी भारत के डेल्टाई इलाकों में 1803 से लेकर 1956 के दौरान बाढ़ नियंत्रण को लेकर किए गए प्रयोगों का अध्ययन दर्शाता है कि यह इलाका बाढ़ पर आश्रित कृषि व्यवस्था से बाढ़-प्रभावित भूभाग में तब्दील हो गया।
औपनिवेशिक शासक बाढ़ नियंत्रण का विचार अपनी संपत्तियों को बचाने और राजस्व संग्रह रणनीतियों को ध्यान में रखते हुए लेकर आए थे। सबसे पहले ओडिशा डेल्टा क्षेत्र में जमीन को डूबने से बचाने के लिए नदी के तटीय इलाकों में छोटे बंधे बनाए गए थे। मशहूर इंजीनियर सर आर्थर कॉटन को 1857 में डेल्टाई इलाकों के सर्वे के लिए बुलाया गया था। उन्होंने यह क्लासिक संकल्पना पेश की थी कि 'सभी डेल्टाई इलाकों को बुनियादी तौर पर एक ही समाधान की जरूरत होती है।' इस सोच का मतलब है कि नदियों में पानी की अपरिवर्तनीय एवं सतत आपूर्ति बनाए रखने के लिए उन्हें नियंत्रित एवं विनियमित किए जाने की जरूरत है। यह धारणा दोषपूर्ण होते हुए भी भारत में आज भी जल नीति को रास्ता दिखाती है।
ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि हम उपनिवेश काल की इस विरासत को किस तरह तिलांजलि देकर नए रास्ते तलाश सकते हैं? पहला, विज्ञान के बुनियादी उसूलों की तरफ लौटकर और जल चक्र में विभिन्न अवयवों की अंतर-संबद्धता को मान्यता देकर। इसी महीने केरल में आई भीषण बाढ़ के उदाहरण से हम इसे बखूबी समझ सकते हैं। लगातार तीसरे साल केरल में भीषण बाढ़ आई है। उत्तराखंड में 2013 में आई विनाशकारी बाढ़ की तरह केरल की बाढ़ भी जल-ग्रहण क्षेत्रों के अच्छी स्थिति में होने की अहमियत पर बल देती है। हमें पानी इन जल-ग्रहण क्षेत्रों से ही मिलता है। हिमालय एवं पश्चिमी घाट के नाजुक परिवेश में अंधाधुंध एवं काफी हद तक गैरकानूनी निर्माण कार्य चलने से भूस्खलन का खतरा काफी बढ़ गया है। माधव गाडगिल और कस्तूरीरंगन समितियां पहले ही पश्चिमी घाटों की अनमोल पारिस्थितिकी को अहमियत देने और उनके संरक्षण के अनुकूल विकास प्रतिमान तैयार करने की वकालत कर चुकी हैं। लेकिन इस सलाह को लगातार नजरअंदाज किए जाने से इन इलाकों में रहने वाले लोगों की मुसीबतें बदस्तूर जारी हैं।
बिजली उत्पादन की मांग और बाढ़ नियंत्रण की अनिवार्यता के बीच अनवरत संघर्ष होता है। दरअसल बिजली उत्पादन के लिए बांधों के जलाशयों में भरपूर पानी की जरूरत होती है जबकि बारिश का मौसम शुरू होने के पहले इन बांधों के काफी हद तक खाली होने से बाढ़ काबू में रहेगी। किसी भी सूरत में हमारे अधिकांश बांध या तो सिंचाई या फिर बिजली उत्पादन के मकसद से बनाए गए हैं और बाढ़ नियंत्रण इसका दोयम लक्ष्य होता है। इसके बजाय पृथ्वी विज्ञान विभाग के केंद्रीय सचिव ने हाल ही में यह कहा है कि बांधों के जलाशयों के खराब प्रबंधन ने बाढ़ को और भी भयावह बनाने का काम किया है। मसलन, 2006 में सूरत, 2015 में चेन्नई और 2016 में बिहार में आई बाढ़ में इन जलाशयों की भूमिका रही थी। जलाशय प्रबंधन की वैकल्पिक रणनीति बनाई जा सकती है। इसमें नर्मदा निमाड़ और उसके मध्यप्रदेश और गुजरात में होने वाले प्रभावों पर अभी से अध्धयन हो|भारत में पारिस्थितिकी के अग्रदूतों सेको कुछ नया सीखना चाहिए |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।