आरक्षण की सारी अवधारणायें कमजोर हो रही हैं | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। इन दिनों समाज में कुछ निर्णायक प्रक्रियाएं चल रही हैं जो आरक्षण की अवधारणा को कमजोर कर रही हैं। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के मार्गदर्शन में सामाजिक आर्थिक संरचना का पुनर्गठन कुछ इस तरह किया जा रहा है कि आरक्षण के सभी प्रावधान निरर्थक हो जायेंगे। भारत में व्याप्त सामाजिक व आर्थिक असमानता पर शायद ही कोई असहमति जताए, जिसका ऐतिहासिक मुख्य कारण शोषण पर आधारित जाति व्यवस्था है। इसका एक उदाहरण है इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट-अहमदाबाद की वर्ष 2020 के लिए पी.एच.डी. प्रवेश के लिए जारी की गई अधिसूचना है | जिसमें वंचित समुदायों के लिए आरक्षण का प्रावधान तो दूर, जिक्र तक नहीं है। हालांकि भारतीय प्रबंधन संस्थान अधिनियम, 2017 जिसके जरिए इन संस्थानों को स्वायत्तता दी गई है और जो इन संस्थानों को सभी विषयों में पी.एच.डी. की डिग्री प्रदान करने की शक्तियां देता है| इसीमें आरक्षण के प्रावधान को स्पष्ट किया है।

आईआईएम अहमदाबाद प्रशासन का तर्क है कि पी.एच.डी. कोर्सों के लिए सीटों की संख्या निर्धारित नहीं है तथा पी.एच.डी. सुपर स्पेशलिटी की श्रेणी में आती है। यह बंचित समुदायों के छात्रों को शोध से दूर करने का एक बहाना मात्र ही है, क्योंकि भारत में अन्य भारतीय प्रबंधन संस्थानों (आईआईएमएस) में पी.एच.डी. में आरक्षण पूरी तरह लागू किया जाता है। शिक्षकों की भर्ती में यह मानसिकता ज्यादा मजबूती व लगभग तमाम भारतीय प्रबंधन संस्थानों में काम करती हैं। सितम्बर 2017 में हुए एक अध्ययन के अनुसार उस समय उपलब्ध आकड़ों के आधार पर, सभी आईआईएम संस्थानों में कुल 642 शिक्षकों के पदों में से केवल 4 ही अनुसूचित जाति व 1 अनुसूचित जनजाति से सम्बन्ध रखते थे। कमोबेश यही स्थिति केन्द्रीय विश्वविद्यालयों सहित सभी उच्च शिक्षण संस्थानों की है जहां बड़ी संख्या में आरक्षित पद खाली पड़े हैं। शिक्षकों की कुल संख्या का 8.6 केवल प्रतिशत ही अनुसूचित जाति से और केवल 2.3 अनुसूचित जनजाति से है जो कि जनसंख्या में उनके प्रतिशत से काफी कम है।आर्थिक आधार पर आरक्षण जैसा विचार तो पूरी तरह नदारद है |

भाजपा व संघ के नेताओं ने आरक्षण नीति की समीक्षा करने की बात सार्वजनिक मचों से भी हैं। इसी क्रम में हाल ही में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर नए सिरे पर चर्चा शुरू करने की अपील जारी की है। इसके अतिरिक्त भी कुछ अप्रत्यक्ष लेकिन निर्णायक प्रक्रियाएं समाज में चल रही हैं जो आरक्षण की अवधारणा को कमजोर कर रही हैं। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के मार्गदर्शन में सामाजिक आर्थिक संरचना का पुनर्गठन कुछ इस तरह किया जा रहा है कि आरक्षण के सभी प्रावधान निरर्थक हो जायेंगे। 

पूर्ववर्ती सरकारें भी आरक्षण को ईमानदारी से लागू करने के लिए बहुत गंभीर नही थी | जब आर्थिक आधार पर आरक्षण को लागू करने की बात आई तो राजनीति का दोहरा चरित्र पूरे देश के सामने उजागर हो गया। देश के प्रबन्धन संस्थानों जा उद्देश्य केवल मुनाफे को अधिकतम करना है जो आरक्षण को अपने रास्ते की बाधा मानता है| आईआईएम अहमदाबाद एक नए भारत का मॉडल मात्र है जहां वंचितों के लिए कोई स्थान नहीं है। यह हमारे सपनों का भारत नहीं हो सकता है, जो कुछ कुलीन लोगों की सेवा करता है, लेकिन बहुतायत जनता को गरीब और वंचित बनाकर हाशिये पर धकेलता है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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